Special Diploma, IDD, Paper-4, Child Development and Learning (बाल विकास और अधिगम) Unit-1


इकाई 1: वृद्धि और विकास
1.1 वृद्धि और विकास की परिभाषा और अर्थ।
1.2 विकास को प्रभावित करने वाले सिद्धांत और कारक।
1.3 प्रकृति बनाम पालन (Nature vs. Nurture)।
1.4 विकास के क्षेत्र; शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक, नैतिक और भाषा।
1.5 विकासात्मक मील के पत्थर और विचलन तथा विशेष क्षमता की पहचान।

Child Development and Learning

Unit 1: Growth and Development
1.1 Definition and meaning of growth and development.
1.2 Principles and factors affecting development.
1.3 Nature vs. Nurture.
1.4 Domains of development; Physical, social, emotional, cognitive, moral, and language.
1.5 Developmental milestones and identifying deviations and giftedness.


1.1, Definition and meaning of growth and development ( वृद्धि और विकास की परिभाषा और अर्थ)

वृद्धि (Growth):
वृद्धि का अर्थ आमतौर पर मानव के शरीर के विभिन्न अंगों के विकास तथा उन अंगों की कार्य करने की क्षमता के विकास से लिया जाता है। व्यक्ति के इन शारीरिक अंगों के विकास के परिणामस्वरूप उसका व्यवहार किसी न किसी रूप से प्रभावित होता है। इस प्रभाव के परिणामस्वरूप ही उस व्यक्ति के अंगों में परिवर्तन होता है। इस तरह वृद्धि से अभिप्राय है शरीर, आकार और भार में वृद्धि। इस प्रकार की वृद्धि में व्यक्ति की माँसपेशियों की वृद्धि भी शामिल है।

हरबर्ट सोरेन्सन ने शारीरिक वृद्धि को ‘बड़ा और भारी होना’ बताया है, जो वृद्धि और परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं। फ्रैंक ने वृद्धि को इस प्रकार परिभाषित किया है: ‘शरीर के किसी विशेष पक्ष में जो परिवर्तन आता है, उसे वृद्धि कहते हैं।’

Special Diploma, IDD, Paper-4, Child Development and Learning (बाल विकास और अधिगम) Unit-1
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वृद्धि के अर्थ और प्रकृति को निम्नलिखित परीक्षा के बाद स्पष्ट किया जा सकता है:

  • वृद्धि से व्यक्ति बड़ा और भारी होता है।
  • वृद्धि को मात्रा के रूप में माना जा सकता है।
  • वृद्धि की सामान्य पद्धति होती है, न कि अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग।
  • वृद्धि निषेचित अंड में विभाजन के परिणामस्वरूप होती है।
  • वृद्धि वास्तविक नहीं होती है।
  • वृद्धि की गति एक समान नहीं रहती, इसमें (गति में) परिवर्तन आते रहते हैं।
  • वृद्धि एक विशेष समय तक होती रहती है, फिर उसके बाद रुक जाती है।
  • वृद्धि आंतरिक रूप से होती है।
  • स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा वृद्धि तीव्र होती है।
  • वृद्धि वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया से होती है।
  • शिशुकाल में वृद्धि तीव्र गति से होती है, लेकिन बाद में धीमी हो जाती है।
  • शारीरिक और मानसिक वृद्धि का आपस में गहरा सम्बन्ध होता है।
  • जब कद में वृद्धि होती है, तो भार कम हो जाता है।
  • स्वास्थ्य और भोजन शारीरिक और मानसिक वृद्धि को प्रभावित करते हैं।

विकास का अर्थ:

विकास शब्द उन्नति से संबंधित परिवर्तनों की ओर संकेत करता है और परिपक्वता की ओर अग्रसर करता है। मानव के आकार और उसकी रचना में गुणात्मक और मात्रात्मक परिवर्तनों के कारण उसमें कार्य-संबंधी सुधार आ जाते हैं। अतः विकास परिपक्वता की एक प्रक्रिया है। अधिकतर शारीरिक विकास शारीरिक वृद्धि पर निर्भर करता है। वृद्धि और विकास के इस बुनियादी संबंध के कारण वृद्धि और विकास शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग किया जाता है।

जर्सिल्ड, टेलफोर्ड और सॉरी के अनुसार, “विकास शब्द का अर्थ उन जटिल प्रक्रियाओं का समूह है जिनसे निषेचित अंड से एक परिपक्व व्यक्ति का उदय होता है।”

हरलॉक के अनुसार, “विकास परतों में वृद्धि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह परिपक्वता के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों की एक प्रगतिशील श्रृंखला है।”

वृद्धि की तरह विकास की भी अपनी विशेष प्रकृति होती है। विकास की भी अपनी एक निश्चित पद्धति होती है। विकास सदा सामान्य से विशिष्ट दिशा की ओर होता है। वृद्धि की तरह विकास रुकता नहीं। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलता रहता है।

वास्तव में ‘विकास’ शब्द का प्रयोग सभी प्रकार के परिवर्तनों के लिए किया जाता है, जिससे व्यक्ति की कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में प्रगति हो। इस दृष्टि से विकास का अर्थ वृद्धि की अपेक्षा व्यापक है। विकास के विस्तृत अर्थ में ही वृद्धि भी शामिल है। विकास गुणात्मक परिवर्तनों की ओर संकेत करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व में आने वाले विभिन्न परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करता है, चाहे वे परिवर्तन सामाजिक, शारीरिक, संवेगात्मक या बौद्धिक हों। सामान्यतः वृद्धि और विकास की प्रक्रियाएँ साथ-साथ ही चलती हैं।

विकास की प्रकृति:

विकास की प्रकृति निम्न तथ्यों से स्पष्ट होती है:

  1. विकास की निश्चित पद्धति होती है।
  2. विकास सामान्य से विशिष्ट दिशा की ओर होता है।
  3. विकास रुकता नहीं, निरंतर चलता रहता है।
  4. विकास सभी प्रकार के परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करता है।
  5. विकास का अर्थ अधिक व्यापक है।
  6. विकास और वृद्धि की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती हैं।
  7. विकास गुणात्मक परिवर्तनों का स्रोत है।

वृद्धि और विकास में अंतर (Difference between Growth and Development):

वृद्धि / अभिवृद्धि:

  1. वृद्धि से आशय शारीरिक एवं व्यवहारिक बदलावों से है।
  2. वृद्धि का संबंध शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता से होता है।
  3. वृद्धि किसी विशेष पक्ष अथवा आंशिक स्वरूप को ही करती है।
  4. वृद्धि निश्चित आयु के बाद रुक जाती है।
  5. वृद्धि में व्यक्तिगत भेद होते हैं। सभी बालकों की वृद्धि असमान होती है।
  6. वृद्धि का मापन उचित होता है। जैसे शरीर की लंबाई और वजन की वृद्धि को मापा जा सकता है।

विकास (Development):

विकास से आशय शरीर के विभिन्न शारीरिक, मानसिक और व्यवहारिक संगठन से होता है।
विकास वातावरण से भी संबंधित होता है।
विकास प्राणी में होने वाले कुल परिवर्तनों का योग होता है।
विकास जीवन-पर्यंत निरंतर चलता रहता है।
विकास में समानता पाई जाती है, किंतु इसकी दर, सीमा आदि में अवश्य अंतर पाया जाता है।
विकास के बदलावों को होते हुए देखा जा सकता है। जैसे आंतरिक बदलावों और योग्यताओं को मात्र अवलोकन कर सकते हैं।


1.2: Principles and Factors Affecting Development (विकास को प्रभावित करने वाले सिद्धांत और कारक)


बच्चों के अवलोकन से एकत्रित वैज्ञानिक ज्ञान से कुछ सिद्धांत सामने आए हैं। ये सिद्धांत माता-पिता और शिक्षकों को यह समझने में सक्षम बनाते हैं कि बच्चे कैसे विकसित होते हैं, उनसे क्या अपेक्षाएँ की जाती हैं, उनका मार्गदर्शन कैसे करें, और उनके इष्टतम विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान किया जाए। ये सिद्धांत विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं। इन्हें “विकास के सिद्धांत” के रूप में जाना जाता है।

नीचे कुछ प्रमुख सिद्धांतों को संक्षेप में समझाया गया है:

विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of Development Direction):
इस सिद्धांत का मानना है कि बालकों का विकास सिर से पैर की तरफ होता है। मनोविज्ञान में इसे “सिर से पाँव की दिशा” कहा जाता है, जिसके अनुसार पहले बच्चे के सिर का विकास होता है, फिर उसके बाद शरीर के निचले अंगों का विकास होता है।
निरंतर विकास का सिद्धांत (Principle of Continuous Development):
यह सिद्धांत कहता है कि विकास एक निरंतर प्रक्रिया है, जो जीवन भर चलती रहती है और इसमें कोई रुकावट नहीं होती। यह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास की निरंतरता को दर्शाता है।
व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत (Principle of Individual Differences):
हर बच्चे के विकास में व्यक्तिगत भिन्नताएँ होती हैं। प्रत्येक बच्चा अपने तरीके से और अपनी गति से विकसित होता है। इसी कारण प्रत्येक बच्चे की विकास प्रक्रिया अलग होती है।
विकास क्रम का सिद्धांत (Theory of Sequence of Development):
इस सिद्धांत के अनुसार, विकास एक क्रमबद्ध और निर्धारित दिशा में होता है। विकास का यह क्रम हमेशा एक विशेष पैटर्न का अनुसरण करता है।
परस्पर संबंध का सिद्धांत (Reciprocal Principle):
यह सिद्धांत यह कहता है कि विकास में शारीरिक, मानसिक, और सामाजिक कारकों के बीच आपसी संबंध होता है। हर एक क्षेत्र में बदलाव दूसरे क्षेत्रों पर भी प्रभाव डालता है।
समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of Common Pattern):
इस सिद्धांत के अनुसार, सभी बच्चों के विकास में कुछ समान पैटर्न होते हैं, हालांकि विकास की गति और आकार में अंतर हो सकता है।
वंशानुक्रम सिद्धांत (Inheritance Principle):
इस सिद्धांत के अनुसार, विकास में वंशानुक्रम का बड़ा योगदान होता है। बच्चों के विकास में उनके माता-पिता के गुण, विशेषताएँ और शारीरिक लक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
पर्यावरणीय सिद्धांत (Environmental Principles):
विकास पर पर्यावरण का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों का विकास उनके आसपास के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक वातावरण से प्रभावित होता है।

1- विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of Development Direction):
इस सिद्धांत के अनुसार, बच्चों का विकास सिर से पैर की ओर होता है। शारीरिक विकास में पहले सिर और फिर बाकी शरीर के अंगों का विकास होता है। मनोविज्ञान में इसे “Cephalocaudal development” कहा जाता है, जिसका मतलब है सिर से शुरू होकर नीचे की तरफ विकास। पहले बच्चे का सिर और मस्तिष्क विकसित होता है, फिर धीरे-धीरे उसके हाथ, पैरों और बाकी अंगों का विकास होता है।

2- निरंतर विकास का सिद्धांत: यह सिद्धांत मानता हैं कि विकास अचानक नहीं होता बल्कि विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे पहले से ही चलते रहती हैं परंतु इसकी गति में बदलाव आते रहता हैं, अर्थात कभी विकास तीव्र गति से होता हैं तो कभी निम्न गति से।

3- व्यक्तिगत मिन्नता का विकास: इस सिद्धांत के अनुसार विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न तरीको से होता हैं। दो व्यक्तियों में एक समान विकास प्रक्रिया नहीं देखी जा सकती। जो व्यक्ति जन्म के समय लंबा होता है, तो वह आगे जाकर भी लंबा व्यक्ति ही बनेगा। एक ही उम्र के दो बालकों में शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास में भिन्नताएँ स्प्ष्ट देखी जा सकती हैं।

4- विकास क्रम का सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास निश्चित क्रम के अनुसार ही होता हैं, अर्थात बालक बोलने से पूर्व अन्य व्यक्ति के इशारों को समझकर अपनी प्रतिक्रिया करता हैं। उदाहरण- बालक पहले स्मृति स्तर में सीखता हैं फिर बोध स्तर फिर अंत में क्रिया करके।

5- परस्पर संबंध का सिद्धांत: बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक पक्ष के विकास में एक प्रकार का संबंध होता हैं, अर्थात शारीरिक विकास के साथ-साथ उसके मानसिक विकास में भी वृद्धि होती हैं और जैसे- जैसे उसका मानसिक विकास होते रहता हैं वैसे-वैसे वह उस मानसिक विकास को क्रिया रूप में परिवर्तन करते रहता हैं।

6- समान प्रतिमान का सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास किसी विशेष जाति के आधार पर होता हैं। जैसे व्यक्ति या पशुओं का विकास अपनी-अपनी कुछ विशेषताओं के अनुसार होता है।

7- वंशानुक्रम सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास उसके वंश के अनुरूप होता हैं, अर्थात जो गुण बालक के पिता, दादा में होते है, वही गुण उनके शिशुओं को होने वाला बच्चा भी लंबा ही होता हैं। जैसे अगर उनके वंश में सभी की लंबाई ज्यादा होती हैं तो वह भी लंबा ही होगा।

8- पर्यावरणीय सिद्धांत: यह सिद्धांत वंशानुक्रम सिद्धांत आस-पास के वातावरण पर निर्भर करता और होगा। यह मानता हैं कि व्यक्ति का विकास उसके पर्यावरण के अनुरूप होता हैं। अर्थात पर्यावरण जिस प्रकार का होगा व्यक्ति का विकास भी उसी दिशा की ओर होगा।


1.3, Nature vs. Nurture (पोषण बनाम प्रकृति)

प्रकृति बनाम पोषण बहस मनोविज्ञान के भीतर सबसे पुराने दार्शनिक मुद्दों में से एक है।

प्रकृति (Nature) उन सभी जीनों और वंशानुगत कारकों को संदर्भित करती है जो हम को प्रभावित करते हैं- हमारी शारीरिक बनावट से लेकर आपके व्यक्तित्व की विशेषताओं तक।

पालन-पोषण (Nurture) उन सभी पर्यावरणीय कारकों को संदर्भित करता है जो हम पर प्रभाव डालते हैं, जिसमें बचपन के शुरुआती अनुभव, हमारा पालन-पोषण कैसे हुआ, हमारे सामाजिक संबंध और आसपास की संस्कृति शामिल हैं।

‘प्रकृति-पोषण की बहस उस सापेक्ष योगदान से संबंधित है जो दोनों प्रभाव मानव व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

यह लंबे समय से ज्ञात है कि कुछ भौतिक विशेषताओं को आनुवंशिक विरासत द्वारा जैविक रूप से निर्धारित किया जाता है। आँखों का रंग, सीधे या घुँघराले बाल, त्वचा की रंजकता और कुछ बीमारियाँ सभी जीनों का एक कार्य है जो हमें विरासत में मिला है। अन्य शारीरिक विशेषताएं, यदि निर्धारित नहीं की जाती हैं, तो कम से कम हमारे जैविक माता-पिता के आनुवंशिक मेकअप से प्रभावित होती हैं। ऊंचाई, वजन, बालों का झड़ना (पुरुषों में)। जीवन प्रत्याशा और विशिष्ट बीमारियों (जैसे महिलाओं में स्तन कैंसर) के प्रति संवेदनशीलता आनुवंशिक रूप से संबंधित व्यक्तियों के बीच सकारात्मक रूप से सहसंबद्ध है।

जो लोग अत्यधिक वंशानुगत स्थिति को अपनाते हैं के रूप में जाना जाता है। उनकी हसिक उन्हें नेटिविस्ट धारणा यह है कि समग्र रूप से मानव प्रजातियों की विशेषताएं विकास का एक उत्पाद हैं और यह कि व्यक्तिगत अंतर प्रत्येक व्यक्ति के अद्वितीय आनुवंशिक कोड के कारण होते हैं। हैं। सामान्य सामान्य तौर पर, जितनी जल्दी एक विशेष चपलता प्रकट होती है, उतनी ही अधिक संभावना है कि वह आनुवंशिक कारकों के प्रभाव में है।

जिस तरह से यह हमारे शारीरिक विकास को प्रभावित करता है, उसका उत्कृष्ट उदाहरण युवावस्था में प्रारंभिक छंद हैं। हालाँकि, प्रकृतिवादियों का यह भी तर्क है कि परिपक्वता शैशवावस्था किशोरावस्था में नियमित रूप से होने वाले छंद हैं। में लगाव के उद्भव, भाषा अधिग्रहण और यहाँ तक कि समग्र रूप से संज्ञानात्मक विकास को भी प्रभावित करती है। पर यहाँ तक

स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर पर्यावरणविद हैं जिन्हें अनुभववादी भी कहा जाता है। उनकी मूल धारणा यह है कि जन्म के समय मानव मन एक टैबुला रस (एक (एक खाली खाली स्लेट) स्लेट) होता होता है है और और यह यह अनुभव अनुभव (जैसे (जैसे व्यवहारवाद) व्यवहारवाद) के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे “भरा” होता है। SPECIAL E ION

मनोविज्ञान में एक चरम प्रकृति की स्थिति के उदाहरणों में बॉल्बी (1969) सिद्धांत लगाव शामिल है, जो माँ और बच्चे के बीच के बंधन को एक सहज प्रक्रिया के रूप में देखता है जो अस्तित्व को सुनिश्चित करता है। इसी तरह, चॉम्स्की (1965) प्रस्तावित भाषा एक जन्मजात भाषा अधिग्रहण उपकरण के उपयोग के माध्यम से प्राप्त की जाती है। प्रकृति का एक और उदाहरण फ्रायड का आक्रामकता का सिद्धांत है जो एक जन्मजात ड्राइव के रूप में है।

इसके विपरीत बंडुरा (1977) के सामाजिक शिक्षण सिद्धांत में कहा गया है कि आक्रामकता पर्यावरण से अवलोकन और अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है। यह उनके प्रसिद्ध बोबो गुड़िया प्रयोग (बंडुरा, 1961) में देखा जाता है। इसके अलावा, स्किनर (1957) का मानना था कि व्यवहार को आकार देने वाली तकनीकों के माध्यम से अन्य लोगों से भाषा सीखी जाती है।

आक्रामकता की प्रकृति और पोषण सिद्धांत (The Nature And Nurture Theories Of Aggression) :- मानव आक्रामकता किस हद तक व्यवहार की प्रकृति या पोषण सिद्धांतों का कारक है? मानव व्यवहार को प्रभावित करने वाले और मानव व्यवहार को आकार देने वाले कारकों का आकलन करने वाले वैज्ञानिकों के बीच मानव व्यवहार पर लगातार

बहस होती रहती है। यह निबंध जैविक और व्यवहारिक दृष्टिकोणों पर केंद्रित होगा जो आक्रामक व्यवहार की व्याख्या करते हैं। इस बहस में दो सिद्धांत हैं नेटिविस्ट (प्रकृति / जन्मजात) और अनुभववादी (पोषण / सीखा) सिद्धांत। जबकि प्रकृतिवादी (प्रकृति सिद्धांत) मानते हैं कि हमारा व्यवहार और अंतःक्रियाएं आंतरिक स्थापित तंत्रों पर निर्भर करती हैं, अनुभववादी (पोषण सिद्धांत) व्यवहार को हमारे अनुभवों से जोड़ते हैं।

आक्रामकताः परिभाषा और प्रकार (Aggression: Definition and Types) :-
हमें पहले आक्रामकता को परिभाषित करने की जरूरत है। बुशमैन और एंडरसन ने मनोविज्ञान 2002 की वार्षिक समीक्षा में आक्रामकता को “किसी अन्य व्यक्ति की ओर निर्देशित किसी भी भार के रूप में परिभाषित किया है जो नुकसान पहुंचाने के निकट के इरादे से किया जाता है।” एंडरसन एट अल का तर्क है कि लोग आक्रामक रूप से उत्तेजक स्थितियों के लिए आक्रामक रूप से प्रतिक्रिया करने की अधिक संभावना रखते हैं। आक्रामक प्रतिक्रिया का स्तर, गंभीरता और तीव्रता उसके व्यक्तिगत कारकों के साथ भिन्न होती है जो व्यक्ति की आक्रामकता के लिए तत्परता को निर्धारित करती है, “व्यक्तिगत कारक उन सभी थैरेटेरिस्टिक्स को शामिल करते हैं जो एक व्यक्ति स्थिति में लाता है, व्यक्तित्व लक्षण, दृष्टिकोण और आनुवंशिक प्रवृत्तियों के रूप में छीनता है।”

आक्रामकता के दो रूप हैं, शत्रुतापूर्ण और वाद्य। शत्रुतापूर्ण वह जगह है जहां आक्रामक व्यवहार क्रोध से प्रेरित होता है और एक विचारहीन और अनियोजित कार्रवाई होती है और अपने आप में एक अंत के रूप में होती है, जबकि सहायक एक पूर्व नियोजित और सक्रिय कार्रवाई होती है, जिसके परिणामस्वरूप वांछित लक्ष्य होता है।

पोषण सिद्धांत का व्यवहार दृष्टिकोण (Behavioural Approach of the Nurture Theory):
परिचय (Introduction) :-
पोषण का सिद्धांत बताता है कि मानव व्यवहार सहज नहीं है बल्कि सीखा हुआ है। इसमें मानव जीवन के पहलुओं को शामिल किया गया है जो सामाजिक कारणों से घिरा हुआ है कि आक्रामकता का प्रदर्शन क्यों किया जाता है। नेशनल सेंटर ऑफ चाइल्ड एब्यूज एएमडी नेग्लेक्ट (एनसीसीएएन) ने अनुमान लगाया है कि लगभग 23 प्रति 1,000 बच्चे दुर्व्यवहार के शिकार हैं, जिनमें शारीरिक शोषण, यौन दुर्व्यवहार और उपेक्षा शामिल हैं, जैसा कि मार्गोलिन और गार्डिस (2004) द्वारा वांछित है। मार्गोलिन और गॉर्डिस ने परिवार और समुदाय में हिंसा के संपर्क में आने वाले बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास का अध्ययन किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जो बच्चे क्षतिग्रस्त और अपमानजनक वातावरण में हैं, उनके स्कूलों और समुदायों में आक्रामक होने और कम उपलब्धि वाले बनने की संभावना अधिक है। इसलिए, पारिवारिक कारक, सहकर्मी प्रभाव और संज्ञानात्मक कारक आक्रामकता के नियंत्रण और विकास में योगदान करते प्रतीत होते हैं। बंडुरा (1961), रेनर एट अल और ह्यूसमैन एट अल (1986) ऐसे सिद्धांतकार हैं जिन्होंने दूसरों को देखकर आक्रामक व्यवहार सहायक आध्य टकरा लिए हैं DUCATION सीखने का सुझाव देने के लिए सहायक साक्ष्य एकत्र किए हैं।

सामाजिक अधिगम का सिद्धांत (Social Learning Theory – SLT):
इसका प्रतिपादन अल्बर्ट बंडूरा (Albert Bandura) ने किया था। इसके अनुसार व्यक्ति अवलोकन, नकल और आदर्श व्यवहार के प्रतिमान के माध्यम से एक-दूसरे से सीखते हैं। समाज द्वारा स्वीकार किए जाने वाले व्यवहार को अपनाना तथा वर्जित व्यवहार को नकारना ही सामाजिक अधिगम है।

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांतों के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान (motivation), स्मृति (attention) और प्रेरणा (memory) तीनों को संयोजित करता है। इसलिए अल्बर्ट बंडूरा को प्रथम मानव व्यवहार-संज्ञानवादी कहते है।

बंडूरा का प्रयोग (Experiment of Bandura):
बंडूरा ने एक बालक पर बेबीडॉल प्रयोग किया। बंडूरा ने एक बालक को तीन तरह की मूवी दिखाई गई।
प्रथम मूवी में सामाजिक मूल्य (Social value) आधारित थी। जिसे देख कर बालक बेबी डॉल के साथ सामाजिक व्यवहार (social behavior) दर्शाता है।

दूसरी मूवी प्रेम पर आधारित थी। जिसे देख कर बालक डॉल से स्नेह करता है, उसे सहलाता है।

तीसरी मूवी हिंसात्मक (violent) दृश्य-युक्त थी। जिसे देख कर बालक गुड़िया की गर्दन को तोड़ देता है।

निष्कर्ष (Conclusion)
इस प्रयोग के आधार बंडूरा ने यह निष्कर्ष निकला की छोटे बच्चों को यह नहीं पता होता, कि उनको क्या सीखना चाहिए और क्या नहीं सीखना चाहिए। इसलिए बच्चों के सामने हमेशा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान (positive models) को प्रस्तुत करना चाहिए।

बंडूरा ने सामाजिक अधिगम के चार उपाय बताये हैं:

  1. ध्यान (Attention)
  2. अवधारण (Retention)
  3. पुनः प्रस्तुतीकरण (Reproduction)
  4. पुनर्बलन (Reinforcement)

ध्यान या अवधान (Attention) करना अवधान कहलाता है। अधिगम विषयवस्तु (जिस को सीखना है) को आकर्षक तथा प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए ताकि बच्चे का ध्यान उस पर केंद्रित रहे।

अवधारण या धारण करना (Retention) – अधिगम के लिए प्रस्तुत किए गए विषय वस्तु को कितना सिखा गया है, यह महत्वपूर्ण है।

पुनः प्रस्तुतीकरण (Reproduction) – प्रस्तुत करना चाहिए। जैसे यदि छात्र किसी वस्तु को अधिगम करते समय कम प्रभावशाली तरीके से सीखते हैं, तो उस वस्तु को पुनः दोहराना चाहिए। सिखाने के लिए मॉडल, चित्र, चार्ट आदि सामग्री का उपयोग करना चाहिए।

पुनर्बलन (Reinforcement) – विषय वस्तु की पुनः प्रस्तुतीकरण – यदि बच्चे ने उसे अच्छी तरह से सीख लिया है, तो उसकी प्रशंसा द्वारा उसे प्रेरित करना चाहिए। यह प्रतिपुष्टि ही पुनर्बलन है।

बंडूरा ने सामाजिक अधिगम के निम्न कारक बताए हैं:

  1. अभिप्रेरणा (Motivation)
  2. खास शिक्षा (Special Education)
  3. स्व नियंत्रण (Self Control)
  4. स्वविवेक (Self Judgment)
  5. स्व निर्णय (Self Determination)
  6. स्वअनुक्रिया (Self Response)

सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Theory of Social Learning) – इस का प्रतिपादन किया था अल्बर्ट बंडूरा (Albert Bandura) ने। इसके अनुसार व्यक्ति अवलोकन, नकल और आदर्श व्यवहार के प्रतिमान के माध्यम से एक-दूसरे से सीखते हैं। समाज द्वारा स्वीकार किए जाने वाले व्यवहार को अपनाना तथा वर्जित व्यवहार को नकारना ही सामाजिक अधिगम है।

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांतों के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान (attention), स्मृति (memory), और प्रेरणा (motivation) तीनों को संयोजित करता है।

जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान (motivation), स्मृति (attention) और प्रेरणा (memory) तीनों को संयोजित करता है।

इसलिए अल्बर्ट बंडूरा को प्रथम मानव व्यवहार-संज्ञानवादी कहते है।

सामाजिक अधिगमवाद का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of Social Learning Theory)

बच्चों के व्यक्तित्व विकास में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत सामाजिक अधिगमवाद है।

यदि बच्चों के सामने अच्छे गुणों वाले व्यवहार को प्रदर्शित किया जाता है, तो उस बालक में वांछित गुणों का विकास किया जा सकता है।

सामाजिक अधिगम का आधार अनुकरण (Imitation) है।

बच्चे के सामने आदर्श मॉडल प्रस्तुत करना चाहिए।

बच्चों के सामने बुरे व्यवहार, अनैतिक मॉडल से बचाना चाहिए।


1.4, Domains of Development; Physical, Social, Emotional, Cognitive, Moral and Language (विकास के क्षेत्र, शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक, नैतिक और भाषा)

शारीरिक विकास (Physical Development):
यह जानना महत्वपूर्ण है कि बच्चे शारीरिक रूप से कैसे विकसित होते हैं क्योंकि शारीरिक विकास बच्चों के व्यवहार को सीधे प्रभावित करता है, यह निर्धारित करते हुए कि वे क्या कर सकते हैं। शारीरिक विकास में शरीर के अनुपात में परिवर्तन शामिल होता है, जिसे ऊंचाई और वजन के संदर्भ में मापा जाता है। इसमें हड्डियों, वसा, मांसपेशियों, दांतों की वृद्धि, यौवन के प्राथमिक और माध्यमिक लक्षणों में परिवर्तन और तंत्रिका संबंधी विकास शामिल हैं।

संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development):
यह तर्क करना और न्याय करना शामिल है। संज्ञानात्मक विकास में मानसिक गतिविधियाँ शामिल होती हैं, जैसे कि सूचना का प्रसंस्करण, संगठन, भंडारण और उपयोग। बौद्धिक विकास के निर्धारण कारक मस्तिष्क में न्यूरॉन पैटर्न हैं। बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर ऑब्जर्वेशनल स्टडीज़ में जिने पियाजे (1896-1980), एक स्विस मनोवैज्ञानिक, का योगदान महत्वपूर्ण था। पियाजे के सिद्धांत में शैशवावस्था से लेकर किशोरावस्था तक के विकास के विभिन्न चरणों का उल्लेख किया गया है।

सामाजिक-भावनात्मक विकास (Socio & Emotional Development):
सामाजिक और भावनात्मक संबंध बनाने और बनाए रखने की क्षमता को दर्शाता है। हर बच्चा सुखद और अप्रिय उत्तेजनाओं के साथ पैदा होता है। नवजात शिशुओं में भावनात्मक रूप से प्रतिक्रिया करने की क्षमता होती है। उम्र के साथ, भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ कम विसरित और यादृच्छिक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, पहले बच्चा चिल्ला या रोकर नाराजगी व्यक्त करता है, लेकिन बाद में उसकी प्रतिक्रियाओं में विरोध करना, वस्तुओं को फेंकना, और शरीर का सख्त होना जैसे बदलाव आते हैं।

नैतिक विकास (Moral Development):
किशोरावस्था के साथ आने वाली स्वतंत्रता के लिए स्वतंत्र सोच के साथ-साथ नैतिकता के विकास की आवश्यकता होती है। हेहनियर के मानक के अनुसार, जो कि आम तौर पर एक संस्कृति में सही या उचित माना जाता है, उसे नैतिक विकास में शामिल किया जाता है। जैसा कि पियाजे ने माना, बच्चों का संज्ञानात्मक विकास विशिष्ट पैटर्नों में होता है, जो समय के साथ परिवर्तित होते हैं।

अनुसरण करता है, लॉरेंस कोहलबर्ग (1984) ने तर्क दिया कि बच्चे सक्रिय सोच और तर्क के माध्यम से अपने नैतिक मूल्यों को सीखते हैं, और यह कि नैतिक विकास चरणों की एक श्रृंखला का अनुसरण करता है।

भाषा विकास (Language Development):
जब ग्रहणशील भाषा क्षमता सीमित होती है तो अभिव्यंजक भाषा विकास प्रभावित होता है। भाषा में ग्रहणशील और अभिव्यंजक दोनों रूप होते हैं। भाषण अभिव्यंजक भाषा का केवल एक रूप है। यह हमारे विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे उपयोगी और व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला रूप है। यदि भाषण को संचार का एक प्रभावी रूप बनाना है, तो वक्ता को दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों का सही तरीके से उपयोग करना चाहिए।


Unit: 1.5, Developmental Milestones and Identifying Deviations and Giftedness (विकासात्मक मील के पत्थर और विचलन और प्रतिभा की पहचान)

विकासात्मक मील के पत्थर (Developmental Milestones):
विकासात्मक मील के पत्थर वे व्यवहार या शारीरिक कौशल होते हैं जो शिशुओं और बच्चों में देखे जाते हैं जब वे बढ़ते और विकसित होते हैं। जैसे कि लुढ़कना, रेंगना, चलना और बात करना, ये सभी मील के पत्थर माने जाते हैं। प्रत्येक आयु सीमा के लिए मील के पत्थर अलग-अलग होते हैं। एक सामान्य सीमा होती है जिसमें एक बच्चा प्रत्येक मील के पत्थर तक पहुँच सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ बच्चों में चलना 8 महीने की उम्र में शुरू हो सकता है, जबकि अन्य 18 महीने की उम्र तक इसे सीख सकते हैं और इसे भी सामान्य माना जाता है।

प्रारंभिक वर्षों में, स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता के पास यह सुनिश्चित करना कि बच्चा सही तरीके से विकसित हो रहा है, एक महत्वपूर्ण कारण होता है। अधिकतर माता-पिता इस बारे में चिंतित रहते हैं कि उनका बच्चा विकास के मील के पत्थर तक कब पहुँचेगा, और वे अपने बच्चे के प्रदाता से इस बारे में चर्चा करते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चा ठीक से विकसित हो रहा है, माता-पिता को विकासात्मक मील के पत्थरों की सूची देखने में मदद मिल सकती है। अनुसंधान से यह भी पता चला है कि जितनी जल्दी विकासात्मक सेवाएं शुरू की जाती हैं, परिणाम उतने ही बेहतर होते हैं। इनमें भाषण चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा और विकासात्मक पूर्वस्कूली जैसी सेवाएं शामिल हो सकती हैं।

कुछ सामान्य मील के पत्थर की सूची, जो बच्चे विभिन्न उम्र में प्रदर्शित करते हैं, इस प्रकार हैं:

  • 2 महीने पर:
    शारीरिक विकास: बच्चा सिर को सहारा दे सकता है, आंखों से चीजों को देख सकता है, मुस्कुरा सकता है।
  • 4 महीने पर:
    बच्चा अपनी पीठ के बल लेटते हुए उंगलियों और पैरों को हिलाता है, आवाजों की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
  • 6 महीने पर:
    बच्चा पेट के बल लेटते हुए हाथों से कंधे को सहारा देता है, सहायक आहार की शुरुआत कर सकता है।
  • 9 महीने पर:
    बच्चा क्रॉल करता है, आस-पास की आवाजों को पहचानता है, और अन्य लोगों से जुड़ता है।
  • 12 महीने पर:
    बच्चा बिना सहारे के खड़ा हो सकता है, कुछ शब्द बोल सकता है और अपने आसपास के वातावरण में सक्रिय रूप से भाग लेता है।

शारीरिक विकास – जन्म से 2 महीने तक:

  • जन्म से 1 महीने तक:
    बच्चा सिर को सहारा नहीं दे सकता है, और अधिकांश समय सोता है (20 घंटे तक)।
  • 1 महीने तक:
    बच्चा धीरे-धीरे अपनी गर्दन को थोडा सा उठाने की क्षमता दिखाने लगता है।
  • 2 महीने पर:
    बच्चा पेट के बल लेटकर सिर और धड़ को थोड़ा ऊपर उठाने में सक्षम होता है।
  • हाथों और पैरों को हिलाने डुलाने जैसी आसान हरकत करता है।

मानसिक, संज्ञानात्मक विकास :-

  • चेहरे पहचानने शुरू करता है।
  • आपको दूर से पहचानता है।
  • आंखों से चीजों को गौर से देखता है।
  • यदि किसी हरकत से उगता है तो उस पर रोता है।

सामाजिक, भावनात्मक विकास :-

  • अचानक से हंसता या मुस्कुराता है।
  • यदि कोई उसके साथ नहीं खेलता है तो रोता है।
  • कुछ कृतियों की नकल करता है।

संवाद, भाषा विकास :-

  • यदि गुस्सा, भूख या थकान लगती है, तो रोता है।
  • अभिव्यक्ति के लिए बड़बड़ाने लगता है।
  • स्वर बोलने शुरू करता है।

बच्चा 6 महीने की उम्र तक :-

शारीरिक विकास :-

  • बच्चा पेट से पीठ के बल या पेट के बल पल लुड़कने लगता है।
  • अपने सहारे और पीठ को सीधा ना रख पा कर बैठना शुरू कर देता है।
  • जब बच्चे को सीधा पकड़ा जाए तब वह अपने पैरों पर कुछ वजन ले सकता है और उछल सकता है।
  • आगे बढ़ने से पहले पीछे धक्का मारता है।

मानसिक विकास :-

  • चीजों के लिए आसपास देखने लगता है।
  • ऐसी चीजों को लेकर जिज्ञासा प्रकट करने लगता है और उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है।
  • वस्तु का एक हाथ से दूसरे हाथ में देने लगता है।

सामाजिक, भावनात्मक विकास :-

  • जब अनजान व्यक्ति उसे देखता है तब यह बात वह जानता है।
  • शिशु माता-पिता और शिशु के साथ खेलना पसंद करता है।
  • उद्देश्य के लिए हथेली से चीजों को पकड़ता है।
  • अपनी भावनाओं पर प्रतिक्रिया करता है, आमतौर पर खुश रहता है।
  • खुश होने पर गले लगता है।

भाषा विकास :-

  • जब बच्चा अपना नाम सुनता है तब वह उस पर प्रतिक्रिया करता है।
  • जैसे “आह” “ओ” आदिश्वर बोलता है।
  • “म”, “ब” जैसे व्यंजन बोलना शुरू करता है।
  • आवाज निकाल कर भावनाएं प्रकट करता है।

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