Table of Contents

Special Diploma, IDD, Paper -1, INTRODUCTION TO DISABILITIES (विकलांगताओं का परिचय), Unit-2

Unit 2: Definition, Causes & Prevention, Types, Educational Implication, and Management of
2.1 Locomotor Disability – Poliomyelitis, Cerebral Palsy/Muscular Dystrophy
2.2 Visual Impairment – Blindness and Low Vision
2.3 Hearing Impairment – Deafness and Hard of Hearing
2.4 Speech and Language Disorder
2.5 Deaf-Blindness and Multiple Disabilities


यूनिट 2: परिभाषा, कारण और रोकथाम, प्रकार, शैक्षिक निहितार्थ और प्रबंधन
2.1 गतिशील विकलांगता – पोलियोमायलाइटिस, सेरेब्रल पाल्सी/मांसपेशी डिस्ट्रोफी
2.2 दृष्टि हानि – अंधापन और निम्न दृष्टि
2.3 श्रवण हानि – बधिरता और श्रवण में कमी
2.4 भाषण और भाषा विकार
2.5 बधिर-अंधापन और बहु विकलांगताएँ

2.1 :- Locomotor Disability and Poliomyelitis / Cerebral Palsy / Muscular Dystrophy ( लोकोमोटर विकलांगता और पोलियोमाइलाइटिस / सेरेब्रल पाल्सी / मांसपेशी डिस्ट्रॉफी)

Locomotor Disability (गामक अक्षमता)

गामक अक्षमता एक ऐसी विकलांगता है, जिसे सामान्य रूप से देखा जा सकता है, क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी चोट या दुर्घटना का शिकार होता है, तो उसका प्रभाव प्रभावित अंग पर स्पष्ट दिखाई देता है।

गामक अक्षमता का तात्पर्य है व्यक्ति की बैठने-उठने, चलने, कूदने के साथ-साथ किसी वस्तु तक पहुंचने, पकड़ने, उठाने एवं ले जाने में कठिनाई का होना। अर्थात, ऐसी समस्याओं से ग्रसित व्यक्ति को गामक अक्षम व्यक्ति कहा जा सकता है।

गामक अक्षमता जन्मजात भी हो सकती है अथवा जन्म के उपरांत किसी भी अवस्था में हो सकती है। जन्मजात गामक अक्षमता के अंतर्गत शिशु का पांव टेढ़ा, मुड़ा हुआ तथा अविकसित अंग वाला हो सकता है। यह समस्याएं भविष्य में गामक अक्षमता का गंभीर रूप ले सकती हैं।

अंगों की गति में प्रतिबंध:
यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमें शारीरिक क्षति के कारण व्यक्ति की हड्डियों, मांसपेशियों एवं जोड़ो को सामान्य रूप से कार्य करने में बाधा हो।

भारतीय पुनर्वास परिषद 1992 के अनुसार:
“व्यक्ति की अस्थियों, मांसपेशियों तथा नसो के क्षतिग्रस्त होने के कारण उसकी भुजाओं, अंगों या शरीर के अन्य भागों की क्रियाओं में सीमितता को गामक अक्षमता कहते हैं।”

इस प्रकार, कंकाल तंत्र एवं गामक क्रियाकलाप से संबंधित कमियां एवं समस्याएं शारीरिक अक्षमता को दर्शाती हैं। गामक अक्षमता शरीर की रचना और कार्य को प्रभावित करती है, जिसके कारण गामक क्रियाकलाप सीमित हो जाते हैं।


Special Diploma, IDD, Paper -1, INTRODUCTION TO DISABILITIES (विकलांगताओं का परिचय), Unit-2
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पोलियो (Poliomyelitis):
पोलियो, वायरस संक्रमण से होने वाली असमानता है। पोलियो वायरस की रीढ़ की हड्डी की वायरस एंटीरियर हार्नसेल को क्षतिग्रस्त कर देता है, जिसके फलस्वरूप अक्षमता हो जाती है। सर्दी-जुकाम, दस्त से ग्रसित एवं कमजोर बच्चों को वायरस से संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। पोलियो जन्म से 5 वर्ष तक के बच्चों को होता है, परंतु 6 महीने से 2 वर्ष की आयु के बच्चों को अधिकतर होता है। 18 महीने तक की उम्र में बच्चे अधिक संख्या में पोलियो से ग्रसित होते हैं।

वायरस का संक्रमण गति को नियंत्रित करने वाली नाड़ियों की कोशिकाओं को प्रभावित करता है। ऐसे वातावरण जहां पोषण की स्थिति खराब तथा शौचालय की कमी होती है, वहां पोलियो ग्रस्त बच्चे के मल से वायरस स्वस्थ बच्चे के मुंह तक पहुंचकर उसे प्रभावित कर सकते हैं। यह वायरस पीने के पानी या खाद्य पदार्थों में मक्खियों द्वारा या गंदे हाथों द्वारा फैल सकता है। यदि वातावरण अच्छा है तो भी इसके वायरस खांसी द्वारा फैल सकते हैं। यह वायरस स्पाइनल कार्ड के एटीरियर हार्न सेल के ग्रे-मैटर को प्रभावित करता है। इसी एटीरियर नर्व की क्षति के कारण मांसपेशियों में तनाव सिथिल या कम हो जाता है।

पोलियो के मुख्यतः तीन वायरस होते हैं:

  1. लियॉन (Leon)
  2. लैंसिग (Lansing)
  3. ब्रॉन्शाइड (Bronshide)

यह वायरल संक्रामक रोग जिससे एटीरियर हार्न सेल से जुड़ी मांसपेशियों में अल्पकालीन अथवा स्थाई रूप से क्षति हो जाती है, उसे लकवा या बाल पक्षाघात भी कहते हैं। कभी-कभी इस वायरस से जानलेवा बीमारी भी हो सकती है जिससे कम से कम 2: बच्चों की मृत्यु हो जाती है। ऐसी स्थिति में बच्चे सुचारू रूप से स्वसन क्रिया नहीं कर सकते हैं।

पोलियो से बचाव

जो बच्चे अस्पताल में पैदा होते हैं उन्हें जन्म के समय ही पोलियो की खुराक पिला दी जाती है। परंतु जो बच्चे घर पर या गांव में पैदा होते हैं, उन्हें जन्म के 6 सप्ताह के अंतर्गत पोलियो की खुराक पिला देनी चाहिए। इस प्रकार पोलियो की रोकथाम हेतु समय सारणी के अनुसार बच्चे का टीकाकरण पूरा होना चाहिए।

पोलियो के टीकाकरण द्वारा प्रतिरक्षण सबसे महत्वपूर्ण है। पोलियो की दवा जन्म के समय से 6 सप्ताह, 10 सप्ताह, 14 सप्ताह, में प्राथमिक खुराक एवं 1 वर्ष में बूस्टर खुराक अवश्य पिलाना चाहिए।

मां का दूध बच्चे को पोलियो के साथ साथ अन्य सभी प्रकार के संक्रमण से बचाता है। अतः माँ का दूध पिलाना जरूरी होता है।

भोजन एवं पानी की स्वच्छ व्यवस्था होनी चाहिए। अतः भोजन सामग्री को मक्खियों से बचाकर रखने हेतु सलाह दिया जाता है।

व्यक्तिगत सफाई पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। भोजन से पहले बच्चों को अवगत कराना आवश्यक होता है। बाद में हाथ धोने जैसी जरूरतों से

मल मूत्र निष्कासन का सही प्रबन्ध होना चाहिए क्योंकि पोलियोग्रस्त बच्चे के मल से ही पोलियो वायरस भोजन, पानी इत्यादि के साथ स्वस्थ बच्चे के मुँह तक पहुँचता है।

6 माह से 2 वर्ष तक के बच्चों की विशेष सफाई एवं स्थिति में संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। च्छ खाद्य पदार्थ देना चाहिए, क्योंकि कमजोरी की

यदि बच्चे को सर्दी, बुखार और दस्त हो तो पोलियो वैक्सीन नहीं देनी चाहिए।

पोलियो वायरस के कारण जब सर्दी जुकाम होता है तो उस स्थिति में कोई इंजेक्शन नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे उत्तेजना होने की आशंका रहती है।

अतः साधारण सर्दी – खाँसी हो सकती है। दिखने पर सूई के लिए तत्परता नहीं दिखानी चाहिए, इससे लाभ के बजाय हानि N

यदि पोलियो की आशंका हो तो बच्चे की मालिश नहीं करनी चाहिए।

पुनर्वास कार्यकर्ता का कर्तव्य होता है कि वे जन – जन तक इस संदेश को पहुँचायें कि पोलियो की रोक थाम हेतु मुख के द्वारा पोलियो ड्राप्स के रूप में दिया जाता है। पोलियो ड्राप्स शरीर में पोलियो वायरस से लड़ने की शक्ति को बढ़ाता है। ये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर उपलब्ध होता है तथा निःशुल्क दिया जाता है। जन तक

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात (Cerebral Palsy)

एक प्रसिद्ध चिकित्सक विलियम लिट्स ने 1760 ई० में पाई जाने वाली

ऐसी असमानता से संबंधित चिकित्सा की चर्चा की थी, जिसमें हाथ एवं पैर की मांसपेशियों में कड़ापन पाया जाता है। ऐसे बच्चों को वस्तु पकड़ने तथा चलने में कठिनाई होती थी। जिसमें हाथ एवं पैर की मांसपेशियों में कड़ापन पाया जाता है। ऐसे बच्चों को वस्तु पकड़ने तथा चलने में कठिनाई होती थी, जिसे लंबे समय तक लिट्स रोग से जाना जाता था। अब इसे प्रमस्तिष्क पक्षाघात कहा जाता है।

लिट्स ने इसका कारण जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी बताया। लेकिन 1977 ईस्वी में सिगमंड फ्रायड ने लिट्स से असहमति व्यक्त की और कहा कि इसका कारण भ्रूण का कुप्रभावित विकास है।

मस्तिष्कीय पक्षाघात को अंग्रेजी में Cerebral Palsy कहते हैं। सेरेब्रल का अर्थ मस्तिष्क के दोनों भाग और पाल्सी का अर्थ किसी ऐसी असमानता या क्षति से है जो शारीरिक गति के नियंत्रण को नष्ट करता है। यह जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दृष्टिगोचर होता है। इस अवस्था में असामान्यताएँ मांसपेशियों की शिराओं की कठिनाइयों के कारण शुरू होती हैं, जिससे गति पर नियंत्रण पाने की मस्तिष्क की क्षमता कम या समाप्त हो जाती है। कुछ मस्तिष्कीय पक्षाघात वाले व्यक्तियों में मिर्गी और मंदबुद्धिता भी पाई जाती है।

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का अर्थ

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात मस्तिष्क का लकवा है। यह मस्तिष्क क्षति बच्चे के जन्म से पहले, जन्म के समय और शिशु अवस्था में हो सकती है। इसमें जितनी ज्यादा मस्तिष्क की क्षति होगी, उतना ही अधिक बच्चे में मानसिक क्षमता की कमी हो सकती है। यह स्थिति स्नायु तंत्र के दोष के कारण होती है, जिसमें मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर की संचालन और गति प्रभावित होती है। इसे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात कहा जाता है।

परिभाषा

बैट्सो और पैरेट (1986) के अनुसार, प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात एक जटिल, अप्रगतिशील अवस्था है जो बच्चे की परिपक्वता से पहले हुई मस्तिष्क की क्षति के कारण उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप मांसपेशियों में सामंजस्य की कमी और गतिमान अपंगता हो जाती है। हालांकि, संचालन और शरीर की स्थितियों में सुधार किया जा सकता है।

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के कारण (Causes of Cerebral Palsy)

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:

  • गर्भावस्था से संबंधित कारण: प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के मुख्य कारण गर्भावस्था से जुड़े होते हैं, जब शिशु गर्भ में पल रहा होता है।
  • अपरिपक्व जन्म: अपरिपक्व जन्म प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का जोखिम बढ़ा सकता है। गर्भवती माँ को गंभीर रक्तस्राव होने से मस्तिष्क अपरिपक्व हो सकता है, जिससे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात हो सकता है।
  • फेफड़े का विकास न होना: जो बच्चे समय से पहले जन्म लेते हैं, उनका फेफड़े ठीक से विकसित नहीं होते, जिससे श्वसन समस्याएं हो सकती हैं। इन समस्याओं के कारण मस्तिष्क को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती, और इसके परिणामस्वरूप प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात हो सकता है।

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि सभी अपरिपक्व जन्म लेने वाले बच्चे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात से प्रभावित नहीं होते हैं।

प्रसव के दौरान ऑक्सीजन की कमी

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का प्रमुख कारण प्रसव के दौरान बच्चे को ऑक्सीजन की कमी होना माना जाता है। यदि इसका कारण जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी है, तो बच्चे में निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे सकते हैं:

  • दौरे पड़ना
  • चिड़चिड़ापन और घबराहट
  • श्वसन समस्याएँ
  • खाने की समस्याएँ
  • सुस्ती इत्यादि

कठिन प्रसव और मस्तिष्कीय क्षति

कभी-कभी कठिन प्रसव के दौरान प्रसविक दुर्घटनाओं के कारण मस्तिष्कीय क्षति हो सकती है, जिससे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात हो सकता है। इस स्थिति में प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के लक्षण जल्द दिखाई देने लगते हैं।

यदि बच्चे की दुर्घटना के दौरान मस्तिष्क के बाहरी भाग में रक्तस्राव हो जाए, तो इसका परिणाम भी प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात हो सकता है।

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के प्रकार

प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का वर्गीकरण करने की कई पद्धतियाँ हैं। इसके लिए अलग-अलग संदर्भ और निष्कर्षों के आधार पर इसे विभिन्न प्रकारों में बांटा जा सकता है।

  1. तीव्रता के प्रमाण के अनुसार वर्गीकरण
  2. प्रभावित अंग के अनुसार वर्गीकरण
  3. चिकित्सकीय लक्षणों के अनुसार वर्गीकरण
  • तीव्रता के प्रमाण के अनुसार वर्गीकरण – इसके अनुसार व्यक्ति में क्षतिग्रस्तता की गंभीरता को ध्यान में रखकर प्रमस्तिष्क पक्षाघात का वर्गीकरण किया जाता है। जिसके अनुसार इसे तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है।
    • अ. अति अल्प प्रमस्तिष्क पक्षाघात – इसमें गामक तथा शरीर स्थिति से संबंधित अक्षमता न्यूनतम होती है। यह पूर्णता स्वतंत्र होते हैं। परंतु सीखने में समस्या हो सकती है।
    • ब. अल्प प्रमस्तिष्क पक्षाघात – इसमें गामक तथा शरीर स्थिति से संबंधित अक्षमता का प्रभाव अधिक होता है। बच्चा पुनर्वास सेवाओं तथा उपकरणों की मदद से बहुत हद तक विकसित हो सकता है तथा आत्मनिर्भर हो सकता है।
    • स. गंभीर प्रमस्तिष्क पक्षाघात – इसमें गामक तथा शरीर स्थिति से संबंधित अक्षमता पूर्णतया प्रभावित होती है। और इससे बच्चे को दूसरों पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ता है।
  • प्रभावित अंगों के अनुसार वर्गीकरण – बच्चे तथा व्यक्ति के प्रभावित अंगों के भागों में वर्गीकृत किया गया है। इसके अनुसार प्रमस्तिष्क पक्षाघात को निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:
    • अ. मोनोप्लीजिया – इसके अंतर्गत आने वाले प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात में कोई एक हाथ या एक पैर प्रभावित होते हैं। आमतौर पर कोई भी एक हाथ प्रभावित होता है।
    • ब. हेमीप्लीजिया – इसमें व्यक्ति के एक ही तरफ के हाथ और पैर दोनों एक साथ प्रभावित हो जाते हैं, जिससे इस अवस्था को हेमीप्लीजिया कहते हैं।
    • स. डाईप्लीजिया – इसमें ज्यादातर दोनों पैर या कभी-कभी दोनों हाथ में भी प्रभाव दिखता है। इसे डाईप्लीजिया कहते हैं।
    • द. पैराप्लीजिया – इसमें व्यक्ति के कमर के नीचे का भाग अथवा दोनों पैर प्रभावित होते हैं, जिससे इस अवस्था को पैराप्लीजिया कहा जाता है।
    • य. क्वाड्रिप्लीजिया – इसमें व्यक्ति के दोनों हाथ और दोनों पैर, यानि पूरा शरीर प्रभावित होता है। मूलतः इस अवस्था को क्वाड्रिप्लीजिया कहा जाता है।
  • चिकित्सकीय लक्षणों के अनुसार वर्गीकरण – प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात से ग्रसित प्रत्येक व्यक्ति की समस्या और लक्षण प्रायः अलग-अलग होते हैं। अतः चिकित्सकीय लक्षणों अनुसार इसे मुख्यतः चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं:
    • अ. स्पास्टीसिटी (Spasticity) – इसका अर्थ यह है कि कड़ी या तनी हुई मांसपेशियों में गामक कुशलताएं प्राप्त करने में कठिनाई और धीमापन होता है। बच्चे सुस्त एवं भद्दे दिखते हैं। गति बढ़ने के साथ मांसपेशीय तनाव बढ़ने लगता है। क्रोध या उत्तेजना की स्थिति में मांसपेशियों का कड़ापन और भी बढ़ जाता है। पीठ के बल लेटने पर बच्चों का सिर एक तरफ घुमा हुआ होता है और पैर अंदर की ओर मुड़ा होता है।
    • ब. एथेटोसिस (Athetosis) – इसमें मांसपेशीय तनाव गति के साथ बदलता रहता है। एथेटोसिस का अर्थ है अनियंत्रित गति। बच्चा जब अपनी इच्छा से कोई अंग संचालन करना चाहता है तो उसका शरीर अनियंत्रित गति करने लगता है। जिससे मांसपेशीय तनाव लगातार बदलता रहता है। एथेटोसिस से प्रभावित बच्चे नन्हें बच्चों की तरह लचीले दिखते हैं ।
    • स. एटैक्सिया (Ataxia) – इसका अर्थ है अस्थिर और अनियमित गति का होना। इसमें बच्चों का संतुलन खराब होता है । ऐसे बच्चे बैठने या खड़े होने पर गिर जाते हैं। इसमें मांसपेशीय तनाव कम होता है तथा गामक विकास पिछड़ा होता है ।
    • द. मिश्रित (Mixed Type) – स्पास्टिसिटी और एथेटोसिस दोनों में दिखने वाले लक्षण जब किसी बच्चे में मिले हुए दिखते हैं तो मिश्रित प्रकार का प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात कहलाता है ।

मांसपेशिय क्षरण (Muscular dystrophy) :- मांसपेशियां क्षरण सर्वप्रथम 1890 में पहचानी गई थी। एक वंशानुगत बीमारी

है। जो धीरे धीरे उम्र के साथ बढ़ती रहती है। यह स्नायु मांसपेशी विकलांगता के समूह में आती है। जिसमें मुख्य आधारित रूप से गामक नर्व कोशिका रीढ़ रज्जु से पेशी को जाने वाले तंतु एवं स्नायु तंत्रीय जोड़ जो आवेग को रासायनिक प्रविधियों के द्वारा तंतुओं तक पहुंचाता है ।

इसे मायोपैथी के नाम से भी जाना जाता है। इसमें बीमारी अथवा असमानता से मांसपेशी क्रियाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। यह पूर्ण रूप से सभी मांसपेशियों को प्रभावित नहीं करता बल्कि कुछ भी भाग जो उसके संपर्क में आते हैं वही प्रभावित होते हैं।

यह एक ऐसी विकृति है जिसमें मांसपेशियों का क्षरण होता है। जिसके परिणाम स्वरूप पेशियों का कार्य प्रभावित हो जाता है। यह अलग-अलग उम्र में अलग-अलग रूप में यह होती है कुछ बच्चों में शैशवास्था तथा कुछ में किशोरावस्था में होती है। इसमें बाल्यावस्था से ही मांसपेशियों की कमजोरी लगातार बढ़ती रहती है। यह रोग पैदाइशी नहीं होते हैं। इस रोग में बच्चों के दोनों पैर प्रभावित होते हैं। और बाद में शरीर के ऊपरी अंग प्रभावित होते हैं।

इस रोग के कारण बच्चे की चाल असामान्य हो जाती है। जिससे चलने में कठिनाई होती है। श्वसन तंत्र की उचित संचालन के अभाव में श्वसन भी प्रभावित होती है। धीरे-धीरे यहां तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित कर देती है।

साथ-साथ जब तंत्रिका तंत्र प्रमा मानव शरीर की साथ साथ जब तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है तो उसे मांसपेशी क्षरण अथवा मायोपैथी कहते हैं। यह एक वंशानुगत बीमारी है। जो बच्चे की माता-पिता द्वारा लाया जाता है। यह पुरुषों को महिलाओं की अपेक्षा अधिक होती है। यह एक ही परिवार में दो या तीन बच्चों को प्रभावित करती है। तथा सात पीढ़ी तक प्रभावित कर सकती है। यो क्षरण SPECIAL EDUCATION

मांसपेशी क्षरण के प्रकार – लक्षणों, उम्र एवं प्रभाव के आधार पर मांसपेशी क्षरण के निम्नलिखित प्रकार हैं

अ. ड्यूशन मांसपेशी शरण (Duchenne Muscular Dystraphy)

ब. अर्ब जुवेनाइल क्षरण (Erb’s Juvenile Dystraphy)

स. इन्फेंटाइल टाइप अथवा फेसिओ ह्यूमरो स्कैपुलर टाइप (Infantile Type or Facio Humero Scapular Type)

ड्यूशन मांसपेशी शरण (Duchenne Muscular Dystraphy) – यह 3 वर्ष से 8 वर्ष के बीच में होने वाली बीमारी है। जो कमजोर नली के जोड़ की मांसपेशियों तक पहुंचती है। इस प्रकार की मांसपेशियों के चरण में मांसपेशियों की जगह चर्बी जमा होने के कारण उनके आकार में वृद्धि होती है इस प्रकार के क्षरण में बच्चे को उठने के लिए कहा जाता है तो वह सर्वप्रथम हाथ को जमीन पर रखता है, फिर हाथ उठाकर घुटने के जोड़ पर रख कर उठता है। जिसे गोवर्स साइन के नाम से जाना जाता है। इसकी चाल भी असामान्य होती है। इस चाल को बैडलिंग चाल के नाम से भी जाना जाता है, कभी-कभी स्वसन क्रिया प्रभावित होने से बच्चे की मृत्यु भी हो जाती है। यह एक जानलेवा बीमारी है।

लक्षण :- ड्यूशन मांसपेशियां क्षरण की पहचान के लिए बच्चों में निम्नलिखित लक्षणों को देखना चाहिए। इन अक्षरों की पूर्णता पहचान 5 से 10 वर्ष की अवस्था में की जा सकती है।

  • थोड़ी दूर चलने पर थकान महसूस करना।
  • पंजे के बल चलना।
  • कुछ बच्चे मंदबुद्धि भी होते हैं।
  • चलते समय जल्दी-जल्दी एवं बहुत ही थोड़ी जगह पर पैर रखते हैं।
  • बच्चा लुंज पुंज होता है जिससे दौड़ने पर गिर सकता है।
  • रीढ़ की हड्डी पर गंभीर मोड़ पैदा हो सकता है।

ब. अर्ब जुवेनाइल क्षरण : इस प्रकार की मांसपेशी क्षरण की प्रारंभिक अवस्था 6 से 12 वर्ष के बीच होती है, लेकिन कभी-कभी यह 12 से 16 वर्ष के बाद भी हो सकती है। यह समस्या बहुत ही धीरे-धीरे बढ़ती है। यह पुरुष एवं स्त्री दोनों में होती है। यदि उचित रूप से देखभाल की जाए तो रोगी लगभग अपना जीवन ठीक से जी सकता है।

लक्षण :- इस प्रकार के मांसपेशी क्षरण में निम्न लक्षण होते हैं। जिनका सही समय पर पहचान करके उचित देखरेख एवं प्रबंधकीय कदम उठाए जा सकते हैं।

  • कूल्हे की मांसपेशियों का क्षरण होना।
  • स्पाइनल की मांसपेशियों का क्षरण होना।
  • चाल असामान्य होती है।
  • समस्त मांसपेशियां आंशिक रूप से प्रभावित होती हैं।

स. इनफेन्टाइल टाइप :- यह मुख्य रूप से छोटे बच्चों को प्रभावित करती है। लेकिन कभी-कभी 10 वर्ष के बच्चों में भी मांसपेशी क्षरण हो जाता है।

लक्षण :- इस प्रकार की मांसपेशी क्षरण को मिश्रित मांसपेशीय क्षरण भी कहते हैं।

  • आंख पूरी तरह से बंद नहीं होती।
  • बोलते समय मुंह खुला का खुला रह जाता है।
  • कंधे एवं भुजाओं की मांसपेशियों में भी क्षरण हो जाता है।
  • ओष्ठ मोटे, कमजोर एवं लार युक्त हो जाते हैं।

इकाई-2.2 दृष्टि अक्षमता: अंधापन और कम दृष्टि (Visual impairment & blindness and low vision)

नेत्र:
नेत्र मानव शरीर की एक प्रमुख ज्ञानेंद्रिय है जिसका कार्य किसी वस्तु को देखना है। यदि इसकी कार्यक्षमता अवरुद्ध हो जाए या पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाए तो मनुष्य दृष्टि जैसी प्राकृतिक उपहार से वंचित हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति अपने जीवन को निरर्थक समझने लगता है और अपने भाग्य को कोसता है। आज के वैज्ञानिक युग में तीव्र गति से प्रगति करते हुए मानव ने ऐसे साधन खोज निकाले हैं जिनके माध्यम से मनुष्य अपनी ज्ञानेंद्रियों की गतिशीलता एवं कार्य क्षमता अर्थात सुनने, सूंघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने की शक्ति को बढ़ाकर जीवन को व्यवस्थित कर सकता है।

दृष्टिअक्षमता (Visual Impairment):
जब कोई व्यक्ति चश्मा, कांटेक्ट लेंस, दवाओं के सेवन तथा ऑपरेशन के बावजूद भी सामान्य तरीके से नहीं देख सकता, तो उसे दृष्टि अक्षम कहा जाता है। दृष्टि अक्षमता को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है।

अमेरिकन फाउंडेशन (1961) ने दृष्टि अक्षमता एवं अल्प दृष्टि को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है:

  1. नेत्रहीनता: ऐसे बच्चे जिनकी दृष्टि समंजन क्षमता 20/200 हो, नेत्रहीन समझे जाते हैं।
  2. अल्प दृष्टि: ऐसे बच्चे जिनकी दृष्टि समंजन क्षमता 20/70 तथा 20/200 के बीच हो, अल्प दृष्टि वाले होते हैं।

दृष्टिहीनता (Blindness):
पूर्व काल से ही शारीरिक विकलांगता के क्षेत्र में सर्वाधिक सुखद रूप से दृष्टिहीनो को स्वीकारा जाता रहा है। परंतु उनका जीवन समाज में दया, सहानुभूति व भिक्षावृत्ति पर आश्रित रहा है। तथापि इतिहास में हमें सूरदास जैसे प्रख्यात भक्ति कवि मिले, जो जन्मांध थे। आज के समय में दृष्टिहीन व्यक्ति विभिन्न औद्योगिक प्रशिक्षण ग्रहण करने के अतिरिक्त क्रिकेट व पैराशूट द्वारा वायुयान से कूदने जैसे अद्भुत प्रदर्शन करने लगे हैं। दृष्टिहीनता एक सफलतापूर्वक पहचानी जाने वाली अक्षमता है।

दृष्टिहीनता की परिभाषा (Definition of Blindness):
दृष्टिहीनता को समय-समय पर अलग-अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया गया है। आयुर्विज्ञान में दृष्टिहीनता का तात्पर्य मित्रों से कुछ भी ना देख सकने की स्थिति है।

  1. शैक्षिक दृष्टि से:
    दृष्टिहीनता एक ऐसा दृष्टि विकार है जिसके परिणामस्वरूप दृश्य सामग्री के प्रयोग से शिक्षा आंशिक रूप से भी संभव नहीं हो पाती।
  2. चिकित्सकीय दृष्टि से:
    चिकित्सकीय विधि से दृष्टिहीनता की परिभाषा दृष्टि तीक्ष्णता और देखने के क्षेत्र पर आधारित होती है। इसे दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है:
    • दृष्टि तीक्ष्णता के आधार पर:
      सभी प्रकार के उपाय करने के बाद यदि व्यक्ति किसी वस्तु को 20 फीट की दूरी पर नहीं देख पाता जबकि सामान्य व्यक्ति उस वस्तु को 200 फीट की दूरी से देख सकता है, तो उस व्यक्ति को दृष्टिहीन कहा जाता है। दृष्टि तीक्ष्णता को 20/200 के रूप में लिखा जाता है। यह प्रदर्शित करता है कि व्यक्ति वस्तु को कितनी दूरी से देख सकता है।
    • देखने के क्षेत्र के आधार पर:
      दृष्टि विकृति वाले व्यक्ति के देखने के क्षेत्र का व्यास 20 अंश से अधिक नहीं होना चाहिए, और उनकी दृष्टि तीक्ष्णता 20/200 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

दृष्टिहीनता के लक्षण:

  1. नेत्र से रुक-रुक कर लगातार पानी गिरना।
  2. नेत्र का लाल होना।
  3. नेत्र की असामान्य गति।
  4. देखने में कठिनाई होना, किसी वस्तु पर नजर ना टिकना।
  5. छोटी लिखावट पढ़ने में कठिनाई का अनुभव करना, छोटे चित्रों का अनुभव नहीं होना।
  6. सिर दर्द की शिकायत करना, आंख में संक्रमण के शिकार होना।

अल्प दृष्टि (Low Vision):

PWD के अनुसार परिभाषा:

“ऐसा व्यक्ति, जिसके उपचार के उपरांत भी दृष्टि क्षमता का ह्रास हो गया हो, परन्तु वह सहायक युक्तियों के माध्यम से किसी कार्य की योजना बनाने अथवा निष्पादन के लिए दृष्टि का उपयोग करता है या उपयोग करने में सक्षम है और उसकी दृष्टि तीक्ष्णता 6/18 या 20/70 है, तो उसे अल्प दृष्टि वाला व्यक्ति कहा जाएगा।”

स्नैलेन आई चार्ट के विभिन्न दृष्टि तीक्ष्णता के मान:

  • 20/200
  • 20/100
  • 20/70
  • 20/50
  • 20/40
  • 20/30
  • 20/25
  • 20/20

PWD Act की इस परिभाषा में दृष्टिक्षीणता के स्थान पर सहायक उपकरणों पर बल दिया गया है, जिससे दृष्टि के उपयोग की क्षमता पर अधिक ध्यान दिया गया है।


इकाई-2.3: श्रवण दोष – बहरापन और सुनने में कठिनाई (Hearing Impairment & Deafness and Hard of Hearing)

श्रवण अक्षमता (Hearing Impairment):
श्रवण अक्षमता का अर्थ है, सुनने में किसी भी प्रकार का दोष होना, चाहे वह वंशानुगत कारणों से हो, कान के किसी अंग के खराब होने से हो, या वातावरणीय कारणों से हो।

दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति या बालक सामान्य वातावरण में उपस्थित ध्वनियों को अपने कान के किसी अंग में खराबी के कारण सुनने में असमर्थ होता है, तो उसे श्रवण बाधिता कहा जाता है।

श्रवण दोष (Hearing Deficiency):
जब कोई व्यक्ति या बालक अपने कान के किसी भी अंग की खराबी के कारण सामान्य रूप से सुनने वाले व्यक्तियों की आवाज को सुनने में असमर्थ हो, तो उसे श्रवण दोष कहते हैं।


परिभाषाएँ:

  • भारतीय पुनर्वास परिषद (1992):
    “जब बधिरता 70 dB हो तो उसे व्यवसायिक माना जाएगा, और जब 55 dB तक हो तो उसे शिक्षा के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।”
  • विकलांग जन अधिनियम (1995):
    “वह व्यक्ति श्रवण बाधित कहा जाएगा, जो 60 dB या उससे अधिक श्रवण क्षमता रखता हो।”
  • राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (1991):
    “श्रवण बाधित उसे कहा जाता है, जो सामान्य रूप से सामान्य ध्वनि को सुनने में असमर्थ हो।”

श्रवण क्षमता के प्रकार:

श्रवण शक्ति, मौखिक संदेश वाहकता, अधिगम, मानसिक विकास, और भाषा के विकास के लिए सबसे सशक्त साधन है। वे समस्त बच्चे जिन्हें सुनने में कोई कठिनाई है, उन्हें श्रवण क्षति युक्त बच्चे कहा जाता है। यह क्षमता दो प्रकार की होती है:

क. पूर्णतया बधिर (Deaf):

  • ऐसे बच्चों का श्रवण क्षय 90 dB या उससे अधिक होता है।
  • ऐसे बच्चे श्रवण यंत्र के बिना और श्रवण यंत्र लगा कर भी कुछ नहीं सुन पाते।

ख. अल्प श्रवण वाले बच्चे (Hard Of Hearing):

  • ऐसे बच्चों में श्रवण यंत्र का उपयोग कर सुनने की प्रक्रिया को सरल किया जाता है।
  • इन बच्चों में श्रवण की संभावनाएं अधिक होती हैं, और श्रवण यंत्र के साथ वे सामान्य सुनने की प्रक्रिया में सहायता प्राप्त कर सकते हैं।

श्रवण क्षति का वर्गीकरण:

किसी भी समस्या का अध्ययन, निदान एवं समाधान के लिए उसका वर्गीकरण करना आवश्यक होता है। श्रवण दोष का वर्गीकरण निम्नलिखित तरीकों से किया जाता है:

१. गंभीरता के अनुसार (Severity Classification):

श्रवण क्षति की गंभीरता और डिग्री के अनुसार इसे विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

क्लार्क के अनुसार:

  • 10-25 dB – सामान्य (Normal)
  • 26-40 dB – अति अल्प (Mild)
  • 41-55 dB – अल्प (Moderate)
  • 56-70 dB – अल्पतम (Moderately)
  • 71-90 dB – गंभीर (Severe)
  • 91 dB या अधिक – अत्यंत गंभीर (Profound)

२. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार (WHO Classification):

  • 0-25 dB – सामान्य (Normal)
  • 26-40 dB – अति अल्प (Mild)
  • 41-55 dB – अल्प (Moderate)
  • 56-70 dB – अल्पतम (Moderately)
  • 71-90 dB – गंभीर (Severe)
  • 91 dB या अधिक – अति गंभीर (Profound)

श्रवण दोष का प्रकार के अनुसार वर्गीकरण

श्रवण अक्षमता का वर्गीकरण जब प्रकार के अनुसार किया जाता है तो इसे मुख्यतः तीन प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है, जिनका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है:

१. चालित श्रवण क्षति (Conductive Hearing Loss):

  • इस स्थिति में बोन कंडक्शन का थ्रेशोल्ड सामान्य होता है, लेकिन एयर कंडक्शन का थ्रेशोल्ड असामान्य होता है। इन दोनों के बीच की दूरी 10 डेसीबल से अधिक होती है।
  • इसमें बाह्य कर्ण या मध्यकर्ण अथवा दोनों में समस्या होती है।

२. संवेदीय श्रवण क्षति (Sensori Hearing Loss):

  • जब एयर कंडक्शन और बोन कंडक्शन दोनों असामान्य होते हैं और उनके बीच की दूरी 10 डेसीबल से कम होती है, तो इसे संवेदी श्रवण क्षति कहा जाता है।
  • इसमें श्रवण तंत्रिका या आंतरिक कर्ण की समस्या होती है।

३. मिश्रित श्रवण क्षति (Mixed Hearing Loss):

  • जब एयर कंडक्शन और बोन कंडक्शन दोनों असामान्य होते हैं और उनके बीच की दूरी 10 डेसीबल से अधिक होती है, तो इसे मिश्रित श्रवण क्षति कहा जाता है।
  • इसमें बाह्य कर्ण, मध्यकर्ण और अंतःकर्ण (आंतरिक कर्ण) में समस्याएं हो सकती हैं।

अन्य प्रकार के श्रवण दोष:

क. केंद्रीय श्रवण दोष (Central Hearing Loss):

  • जब किसी चोट या संक्रमण के कारण श्रवण तंत्रिका के 21वें और 22वें हिस्से में समस्या उत्पन्न होती है, तो इसे केंद्रीय श्रवण दोष कहते हैं।
  • इस प्रकार की समस्या वाले व्यक्ति को विचार करने में कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन वे अपनी बात सही तरीके से व्यक्त करने में असमर्थ हो सकते हैं।

ख. अकायिक श्रवण दोष (Non-Organic Hearing Loss):

  • जब शारीरिक संरचना में कोई क्षति न हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक कारणों से श्रवण समस्या उत्पन्न होती है, तो इसे अकायिक श्रवण दोष कहा जाता है।
  • यह समस्या कभी-कभी मानसिक या भावनात्मक दबाव के कारण होती है।

ग. कायिक श्रवण दोष (Organic Hearing Loss):

  • जब कान के किसी भाग में शारीरिक क्षति होती है और इससे श्रवण समस्या उत्पन्न होती है, तो इसे कायिक श्रवण दोष कहा जाता है।

घ. वंशानुगत श्रवण दोष (Hereditary Hearing Loss):

  • जब श्रवण दोष गुणसूत्रों की अनियमितता के कारण होता है और यह एक वंश से दूसरे वंश में फैलता है, तो इसे वंशानुगत श्रवण दोष कहा जाता है।

ड. जन्मजात श्रवण दोष (Congenital Hearing Loss):

  • जन्म के समय किसी भी कारण से होने वाला श्रवण दोष जन्मजात श्रवण दोष कहलाता है। यह वंशानुगत, प्रसव पूर्व, या प्रसव के दौरान हो सकता है।

च. उपार्जित श्रवण दोष (Acquired Hearing Loss):

  • जन्म के बाद किसी चोट, संक्रमण, या गंभीर बीमारी के कारण होने वाला श्रवण दोष उपार्जित श्रवण दोष कहलाता है।

छ. भाषा विकास-पूर्व श्रवण दोष (Pre-Lingual Hearing Loss):

  • जब किसी बच्चे में वाणी और भाषा विकास की आयु से पहले श्रवण समस्या उत्पन्न होती है, तो इसे भाषा विकास-पूर्व श्रवण दोष कहते हैं।

ज. पश्च भाषा विकास श्रवण दोष (Post-Lingual Hearing Loss):

  • जब किसी व्यक्ति में भाषा और वाणी के विकास के बाद श्रवण समस्या उत्पन्न होती है, तो इसे पश्च भाषा विकास श्रवण दोष कहा जाता है।

झ. आकस्मिक श्रवण दोष (Sudden Hearing Loss):

  • जब किसी व्यक्ति की श्रवण तंत्रिका आकस्मिक चोट या दुर्घटना के कारण क्षतिग्रस्त हो जाती है और इसके कारण उसके श्रवण को प्रभावित करती है, तो इसे आकस्मिक श्रवण दोष कहा जाता है।

संवर्धित श्रवण दोष (Progressive Hearing Loss):

  • संवर्धित श्रवण दोष वह स्थिति है जिसमें किसी प्रकार की चोट या दुर्घटना के कारण व्यक्ति की श्रवण क्षमता में समय के साथ वृद्धि होती जाती है।
  • इस प्रकार की समस्या कान के बाहरी, मध्य, आंतरिक या श्रवण तंत्रिका में संक्रमण या बीमारी के कारण उत्पन्न होती है।
  • समय के साथ यह दोष और अधिक गंभीर हो सकता है, और व्यक्ति को सुनने में अधिक कठिनाई महसूस होने लगती है।

2.4, वाणी और भाषा विकार (Speech and Language Disorder):

वाणी और भाषा मानव जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह न केवल समाज में संवाद स्थापित करने का माध्यम हैं, बल्कि यह व्यक्ति की सोच, भावनाओं, और मानसिक विकास को व्यक्त करने का प्रमुख तरीका भी हैं। यदि इन प्रक्रियाओं में कोई विकृति उत्पन्न होती है, तो इससे व्यक्ति की वाणी और भाषा में विकार हो सकते हैं।

वाणी (Speech):

  • वाणी एक जटिल प्रक्रिया है, जो श्वसन, उच्चारण, संवहन, और नियंत्रण जैसे विभिन्न घटकों से गुजरती है। जब इन प्रक्रियाओं में कोई विकृति उत्पन्न होती है, तो यह वाणी विकार का कारण बन सकती है।
  • वाणी वह रूप है, जिसके द्वारा हम अपनी भावनाओं, विचारों और संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं।

भाषा (Language):

  • भाषा एक संकेत व्यवस्था है, जिसके माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं को दूसरे के सामने व्यक्त करता है।
  • भाषा का प्रयोग एक सुव्यवस्थित संकेत प्रणाली के रूप में किया जाता है, जिसका उद्देश्य संप्रेषण (विचारों और सूचनाओं का आदान-प्रदान) होता है।
  • नोम चोम्स्की के अनुसार, भाषा का अध्ययन करने पर हम उन विशेषताओं को पहचानते हैं जो केवल मनुष्यों में पाई जाती हैं, और यही विशेषताएँ मानव और पशुओं के बीच अंतर स्थापित करती हैं।

भाषा की परिभाषाएं:

  • स्वीट के अनुसार: “ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को व्यक्त करना ही भाषा है।”
  • डॉक्टर बाबूराम सक्सेना के अनुसार: “एक प्राणी जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा दूसरे प्राणी से कुछ व्यक्त कर देता है, वही विस्तृत अर्थ में भाषा है।”

भाषा विकार (Language Disorders):

  • बच्चों में सामान्य रूप से निम्नलिखित तीन प्रकार के भाषा विकार देखे जाते हैं, जो भाषा की क्रियाशीलता पर निर्भर करते हैं:
    1. भाषा ग्रहण करने में कठिनाई: जब बच्चे में किसी आदेश या निर्देश को समझने की क्षमता उसकी मानसिक आयु से कम होती है, तो उसे भाषा ग्रहण करने में समस्या होती है।
    2. भाषा अभिव्यक्त करने में कठिनाई: जब बच्चे के पास बहुत सारे शब्दों का ज्ञान होता है और वह उन्हें समझ सकता है, लेकिन वह इन शब्दों को मौखिक रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
    3. मिश्रित समस्या (Mixed Problem):
      जब किसी व्यक्ति या बच्चे में भाषा ग्रहण करने और वाणी को अभिव्यक्त करने में दोनों समस्याएँ एक साथ पाई जाती हैं, तो उसे मिश्रित समस्या कहा जाता है। इस स्थिति में बच्चा शब्दों को समझने (ग्रहण करना) और उन्हें मौखिक रूप से व्यक्त करने में दोनों ही समस्याओं का सामना करता है। कई बार देखा जाता है कि कुछ बच्चों का भाषा विकास देर से होता है। इस प्रकार के बच्चों की मानसिक आयु सामान्य होती है, लेकिन उनकी भाषा ग्रहण करने की क्षमता उनकी मानसिक आयु से कम होती है, और भाषा को व्यक्त करने की क्षमता उससे भी कम होती है। ऐसे बच्चों को मिश्रित समस्या के अंतर्गत रखा जाता है।

      वाणी (Speech):
      वाणी वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों तक पहुंचाते हैं। यह एक जटिल और महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे विभिन्न अंगों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। वाणी का मुख्य कार्य संचार होता है, जो समाज में व्यक्ति के रिश्तों और भावनाओं का आदान-प्रदान करता है।
  • वाणी की परिभाषा:
    “किसी भी अर्थपूर्ण शब्द को वाणी कहते हैं। प्रत्येक वाणी की अपनी विशेषताएँ होती हैं। वाणी वह प्रक्रिया है जो ध्वनि की उपस्थिति में निकलती है।”

    वाणी दोष (Speech Disorder):
    वाणी दोष तब उत्पन्न होते हैं जब वाणी उत्पादन के लिए आवश्यक अंगों की क्रियाएँ सामान्य रूप से काम नहीं करतीं। वाणी को उत्पन्न करने में वोकल कॉर्ड, मुखाग्र, नासाग्र, और मस्तिष्क जैसी संरचनाओं का सहकार्य आवश्यक है। इसके साथ ही श्रवण क्षमता और मानसिक क्षमता का सामान्य होना भी ज़रूरी है। यदि किसी कारण से सुनने में कठिनाई होती है, तो वाणी उत्पादन में भी त्रुटि हो सकती है, क्योंकि हम जो कुछ बोलते हैं उसे पहले अच्छी तरह सुनना और समझना जरूरी है।
  • वाणी दोष का वर्गीकरण:
    वाणी दोषों को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है:
  • उच्चारण संबंधी दोष (Articulation Disorders):
    उच्चारण संबंधी दोष उन बच्चों और वयस्कों में पाए जाते हैं, जिनमें सही ढंग से शब्दों का उच्चारण नहीं हो पाता। इन दोषों में निम्नलिखित प्रकार की समस्याएँ हो सकती हैं:
    क. प्रतिस्थापन (Substitution): उच्चारण के समय एक अक्षर को गलत तरीके से बोलना। उदाहरण के तौर पर, “कमला” को “तमला” या “कुत्ता” को “तुत्ता” कहना।
    ख. छोड़ना (Omission): शब्द के शुरू या अंत में किसी अक्षर को छोड़ना या भूल जाना। उदाहरण के लिए, “प्रदीप” को “दीप” या “कालम” को “काल” कहना।
    ग. अशुद्ध बोलना (Distortion): शब्दों को सही तरीके से उच्चारण न करना। शब्दों का आकार और ध्वनियाँ सही नहीं होतीं।
    घ. जोड़ना (Addition): किसी शब्द में अतिरिक्त ध्वनियाँ जोड़ देना। उदाहरण के लिए, “टेबल” के स्थान पर “टेबलो” कहना।


वाणी दोष (Speech Disorders)

ग. अशुद्ध बोलना (Distortion):
अशुद्ध बोलने की स्थिति में बोले गए अक्षर या शब्द में स्पष्टता की कमी होती है, जिससे श्रोता को बार-बार समझने में परेशानी होती है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि शब्दों का सही उच्चारण नहीं हो पाता, और व्यक्ति की बात समझने में कठिनाई होती है।

घ. जोड़ना (Addition):
इस दोष में किसी अर्थपूर्ण शब्द में अतिरिक्त अक्षर जोड़े जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, “कमल” को “कमला” बना देना। इसमें शब्दों के सही रूप में परिवर्तन हो जाता है, और यह संचार में भ्रम पैदा करता है।


वाणी संबंधी दोष (Speech Related Disorders):

वाणी मुख्यतः तीन तत्वों से मिलकर बनती है:

  1. तारत्व (Pitch): यह वाणी का उच्चारण का स्वर है, जो हमें समझने में मदद करता है कि व्यक्ति कितना गंभीर या हल्का बोल रहा है। अधिक आवृत्ति वाले तारत्व को उच्च माना जाता है।
  2. गुण (Quality): यह वाणी की ध्वनि का प्रकार होता है, जैसे स्पष्टता, ध्वन्यात्मकता आदि।
  3. उच्चता (Loudness): यह वाणी की तीव्रता है, जिसे हम आवाज़ की ऊँचाई या नीचाई के रूप में समझ सकते हैं।

अगर इन तीनों में से किसी भी तत्व में कमी हो, तो वाणी दोष उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे ध्वनि में स्पष्टता की कमी, आवाज़ बहुत कमजोर या बहुत तेज़ होना, आदि।


वाक प्रवाह संबंधी दोष (Fluency Disorders):

वाक प्रवाह से तात्पर्य है कि व्यक्ति की वाणी कितनी धारा प्रवाह होती है। यदि व्यक्ति रुक-रुक कर बोलता है या कुछ शब्दों और उनके भागों को बार-बार दोहराता है, तो इसे वाक प्रवाह दोष कहा जाता है। यह दोष हकलाने (Stuttering) के रूप में सामने आ सकता है, जहां व्यक्ति बोलते समय शब्दों को रोकता है या उसे दोहराता है।


कंठ संबंधी दोष (Voice Disorders):

इस श्रेणी में वह दोष आते हैं जो वोकल कॉर्ड या कंठ से संबंधित होते हैं। ये दोष व्यक्ति की आवाज़ को प्रभावित करते हैं, जैसे:

  • हकलाना (Stuttering)
  • स्वरभ्रम (Voice Dysphonia)
  • रूखी आवाज़ (Hoarseness)
  • श्वास भरकर बोलना (Breathy Voice)
  • ऊंचे स्वर का दोष (High-pitched Voice)

इन दोषों से व्यक्ति की आवाज़ असामान्य होती है, जिससे बोलने में परेशानी होती है।


2.5, Deaf & Blindness and Multiple Disabilities (बहु विकलांगता)

बहु विकलांगता का मतलब है दो या दो से अधिक विकलांगताओं का होना। यह विकलांगताएँ किसी व्यक्ति के शारीरिक या मानसिक विकास को प्रभावित कर सकती हैं। यह विकलांगताएँ जन्मजात, जन्म के समय या जन्म के बाद उत्पन्न हो सकती हैं।

बहु विकलांगता की परिभाषा (NTA 1999 के अनुसार):
“यदि किसी व्यक्ति की एक प्रमाणित विकलांगता के साथ दूसरी विकलांगता है, तो उसे बहु विकलांगता वाला व्यक्ति कहा जाएगा। दो या दो से अधिक विकलांगताओं का समायोजन ही बहु विकलांगता है।”


बहु विकलांगता के प्रकार (Types of Multiple Disabilities):

  1. श्रवण अक्षम एवं दृष्टिबाधित
  2. दृष्टिबाधित, श्रवण अक्षम एवं मानसिक मंदता
  3. दृष्टिबाधित एवं मानसिक मंदता
  4. प्रमस्तिष्क पक्षाघात एवं मानसिक मंदता
  5. दृष्टिबाधित, श्रवण अक्षमता एवं गमक अक्षमता

बहु विकलांगता के लक्षण (Symptoms of Multiple Disabilities):

  1. शारीरिक विकास में धीमापन:
    जैसे गर्दन का नियंत्रण, बैठना, घुटने के बल चलना, खड़ा होना आदि में देरी होती है।
  2. शौच नियंत्रण का अभाव:
    बच्चों में शौच नियंत्रण की समस्या होती है।
  3. हाथ के उपयोग में अक्षमता:
    कुछ बच्चों को निगलने, चबाने या हाथ के उपयोग में कठिनाई होती है।
  4. संवेदनाओं को समझने में कठिनाई:
    ये बच्चे देखने, सुनने, स्पर्श करने, गंध और स्वाद को सही से समझने में परेशानी महसूस करते हैं।
  5. स्पष्ट रूप से अपनी भावनाओं, विचारों एवं आवश्यकताओं को व्यक्त नहीं कर पाते:
    बहु विकलांगता से ग्रस्त बच्चे अक्सर अपनी भावनाओं या विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते। इससे उनकी मानसिक स्थिति और भावनाओं का सही प्रकार से मूल्यांकन करना मुश्किल हो सकता है।
  6. नये कौशलों को नहीं सीख पाते हैं, जिसे दूसरों को करते देखते हैं:
  7. इन बच्चों को अक्सर नए कौशल सीखने में कठिनाई होती है, भले ही वे दूसरों को उसे करते हुए देखें। यह उनकी सीखने की प्रक्रिया को धीमा बना देता है
  8. सीखने में धीमे अथवा अक्षम होते हैं:
    इन बच्चों की सीखने की क्षमता सामान्य से धीमी हो सकती है, जिससे उन्हें शैक्षिक सामग्री को समझने और सीखने में अधिक समय लगता है
  9. भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाते:
    कुछ बहु विकलांग बच्चे अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने में असमर्थ होते हैं और परिणामस्वरूप समस्या उत्पन्न कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, वे सामान फेंक सकते हैं, स्वयं को या दूसरों को चोट पहुंचा सकते हैं।
  10. संवेदनाओं को याद रखने में कठिनाई: कुछ बच्चे घटनाओं या सूचनाओं को बहुत ही अल्प समय तक याद रखते हैं, जिससे उनके सीखने और समग्र विकास में रुकावट आती है।

बधिरांधता (DeafBlindness) :-

बधिरांधता एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति की दोनों प्रमुख संवेदी क्षमताएं—दृष्टि (Vision) और श्रवण (Hearing)—प्रभावित होती हैं, जिससे उनकी संप्रेषण क्षमता (communication), सूचना की समझ, और आवागमन (mobility) में गंभीर कठिनाई होती है।
यह जरूरी नहीं कि बधिरांध व्यक्ति पूरी तरह से बधिर (Deaf) और दृष्टिहीन (Blind) हो, क्योंकि कई मामलों में ऐसे लोग होते हैं जिनमें आंशिक दृष्टि या आंशिक श्रवण क्षमता होती है। बधिरांधता को अक्सर द्विसंवेदी क्षति (Dual Sensory Impairment) भी कहा जाता है।

बधिरांधता की परिभाषाएं:

यू.एस. डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन (2004) के अनुसार:
“बधिरांधता का अर्थ है जब एक व्यक्ति की दृष्टि और श्रवण दोनों क्षतिग्रस्त होते हैं, जिससे उसके संप्रेषण और अन्य विकासात्मक और शैक्षिक जरूरतें गंभीर रूप से प्रभावित होती हैं, और न ही वह बधिर बच्चों के विशेष शिक्षा कार्यक्रम से पूरी तरह समायोजित हो सकता है, और न ही दृष्टिहीन बच्चों के विशेष शिक्षा कार्यक्रम से।”

अलवेल, ग्राहम और गोएट्स (1994) के अनुसार:
“बधिरांधता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति की दो या तीन प्रमुख संवेदी क्षमताएं (जैसे दृष्टि, श्रवण, और गंध) प्रभावित होती हैं, और व्यक्ति को शैक्षिक एवं अन्य जानकारी को संकलित करने के लिए अन्य संवेदी मार्गों (जैसे स्पर्श, स्वाद) का उपयोग करना पड़ता है।”

Individual with Disabilities Education Act (IDEA) के अनुसार:
“बधिरांधता का मतलब है जब किसी बच्चे की दृष्टि और श्रवण अक्षमताएँ दोनों गंभीर रूप से उसके संप्रेषण और अन्य विकासात्मक जरूरतों को प्रभावित करती हैं, और उसे बधिर या दृष्टिहीन बच्चों के शैक्षिक कार्यक्रम में समायोजित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वह दोनों संवेदनाओं से संबंधित विशेष शैक्षिक जरूरतों के लिए उचित सहयोग प्राप्त नहीं करता।”

बधिरांधता के शीघ्र संकेत (Early Signs of DeafBlindness):
बधिरांधता वाले बच्चों में कुछ शुरुआती संकेत दिखाई दे सकते हैं, जैसे:
बहुत अधिक सोना:
बच्चा ज्यादा सोता है और बहुत कम रोता है, जो सामान्य विकास के खिलाफ हो सकता है।
कम से कम संपर्क:
बच्चा माता-पिता या अन्य लोगों से नजर मिलाने में असमर्थ होता है, जिससे समाजिक संपर्क की कमी हो सकती है।
आवाज़ या वस्तुएं पकड़ने में अक्षमता:
बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से आवाज़ नहीं करता, वस्तुएं नहीं पकड़ता, और स्वतः नहीं बैठता या खड़ा होने की कोशिश नहीं करता है।
आवाज़ों या ध्वनियों पर प्रतिक्रिया नहीं करना:
तेज़ आवाज़ों या अन्य ध्वनियों पर बच्चा प्रतिक्रिया नहीं करता, जो श्रवण क्षमता की कमी का संकेत हो सकता है।


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