Special Diploma, IDD, Paper-4, Child Development and Learning (बाल विकास और अधिगम) Unit-3
इकाई 3: मनोविज्ञान और अधिगम
3.1 शैक्षिक मनोविज्ञान; शिक्षकों के लिए महत्व और दायरा।
3.2 थॉर्नडाइक, पाव्लोव, स्किनर, बंदुरा, पियाजे और विगोत्स्की द्वारा दिए गए अधिगम के मूलभूत सिद्धांत।
3.3 अधिगम शैली और शिक्षार्थियों के प्रकार।
3.4 अधिगम को प्रभावित करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक कारक।
3.5 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए निहितार्थ।
Unit 3: Psychology and Learning
3.1 Educational Psychology; relevance and scope for educators.
3.2 Basic principles of learning given by Thorndike, Pavlov, Skinner, Bandura, Piaget, and Vygotsky.
3.3 Learning styles and types of learners.
3.4 Socio-cultural factors affecting learning.
3.5 Implications for children with special needs.
3.1 Educational Psychology; relevance and scope for educators (शैक्षिक मनोविज्ञान; शिक्षकों के लिए प्रासंगिकता और गुंजाइश)
शैक्षिक मनोविज्ञान (Educational Psychology):
शैक्षिक मनोविज्ञान वह शाखा है जिसमें यह अध्ययन किया जाता है कि लोग शैक्षिक वातावरण में कैसे सीखते हैं और शैक्षणिक क्रियाकलापों को अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है। इसका मुख्य उद्देश्य शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग करना है। इसे ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ कहा जाता है, जो ‘शिक्षा’ और ‘मनोविज्ञान’ शब्दों का योग है। शैक्षिक मनोविज्ञान में, मानव व्यवहार का अध्ययन शैक्षिक स्थितियों में किया जाता है, ताकि शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन, अनुशासन आदि को और अधिक प्रभावी और वैज्ञानिक तरीके से लागू किया जा सके।
शैक्षिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों के माध्यम से शिक्षक और अन्य शैक्षिक पेशेवर यह समझ सकते हैं कि विद्यार्थी किस तरह से सीखते हैं, उनकी मानसिक प्रक्रियाएँ कैसे काम करती हैं, और शैक्षिक वातावरण में उनका व्यवहार किस तरह से प्रभावित होता है। यह विषय शैक्षिक परिस्थितियों में छात्र के अनुभवों और मानसिक प्रक्रियाओं का गहराई से अध्ययन करता है, ताकि अधिक प्रभावी और परिणामदायक शिक्षण विधियाँ विकसित की जा सकें।
स्किनर के अनुसार: शिक्षा मनोविज्ञान, शैक्षणिक परिस्थितियों में मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता है। शिक्षा मनोविज्ञान अपना अर्थ शिक्षा से, जो सामाजिक प्रक्रिया है और मनोविज्ञान से, जो व्यवहार संबंधी विज्ञान है, ग्रहण करता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक सीखने सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान व्यावहारिक मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतो तथा खोजों के प्रयोग के साथ ही शिक्षा की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक अध्यन से सम्बंधित है।
ऐलिस क्रो के अनुसार शैक्षिक मनोविज्ञान मानव प्रतिक्रियाओं के शिक्षण और सीखने को प्रभावित वैज्ञानिक दृष्टि से व्युत्पन्न सिद्धांतों के अनुप्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है।
भारत में शिक्षा का अर्थ ज्ञान से लगाया जाता है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा के समुचित विकास से है।
शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए स्किनर ने अधोलिखित तथ्यों की ओर संकेत किया है:
- शिक्षा मनोविज्ञान का केन्द्र, मानव व्यवहार है।
- शिक्षा मनोविज्ञान खोज और निरीक्षण से प्राप्त किए गए तथ्यों का संग्रह है। पद्धतियां Fayssum
- शिक्षा मनोविज्ञान में संग्रहीत ज्ञान को सिद्धांतों का रूप प्रदान किया जा सकता है।
- शिक्षा मनोविज्ञान ने शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए अपनी स्वयं की पद्धतियों का प्रतिपादन किया है।
- शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धांत और पद्धतियां शैक्षिक सिद्धांतों और प्रयोगों को आधार प्रदान करते है।
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में स्किनर ने लिखा है कि शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वह सभी ज्ञान तथा प्रविधियाँ से सम्बंधित हैं जो सीखने की प्रक्रिया को अच्छी प्रकार से समझाने तथा अधिक निपुणता से निर्धारित करने से सम्बंधित हैं।
आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञानिकों के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र निम्न प्रकार हैं:
- वंशानुक्रम (Heredity)
- विकास (Development)
- व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences)
- व्यक्तित्व (Personality)
- विशिष्ट बालक (Exceptional Child)
- अधिगम प्रक्रिया (Learning Process)
- पाठ्यक्रम निर्माण (Curriculum Development)
- मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)
- शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
- निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and Counseling)
- मापन एवं मूल्यांकन (Measurement and Evaluation)
- समूह गतिशीलता (Group Dynamics)
- अनुसन्धान (Research)
- किशोरावस्था (Adolescence)
शिक्षा की महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान में मनोविज्ञान सहायक होता है और यही सब समस्याएं व उनका समाधान शिक्षा मनोविज्ञान का कार्यक्षेत्र बनते हैं:
- शिक्षा कौन दे, अर्थात् शिक्षक कैसा हो?
मनोविज्ञान शिक्षक को अपने छात्रों को समझने में सहायता प्रदान करता है, साथ ही यह भी बताता है कि शिक्षक को छात्रों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। शिक्षक का व्यवहार पक्षपात रहित हो, उसमें सहनशीलता, धैर्य और अर्जनात्मक शक्ति होनी चाहिए। - विकास की विशेषताएं समझने में सहायता देता है।
प्रत्येक छात्र विकास की कुछ निश्चित अवस्थाओं से गुजरता है, जैसे शैशवास्था (0-2 वर्ष), बाल्यावस्था (3-12 वर्ष), किशोरावस्था (13-18 वर्ष), और प्रौढ़ावस्था (18-21 वर्ष)। विकास की दृष्टि से इन अवस्थाओं की विशिष्ट विशेषताएं होती हैं। यदि शिक्षक इन विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताओं से परिचित होता है, तो वह अपने छात्रों को भली प्रकार समझ सकता है और उन्हें उसी प्रकार का निर्देशन देकर लक्ष्य प्राप्ति में सहायता कर सकता है। - शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान शिक्षक को सीखने की प्रक्रिया से परिचित कराता है।
ऐसा देखा जाता है कि कुछ शिक्षक कक्षा में पढ़ाते समय अधिक सफल होते हैं, जबकि कुछ अपने विषय पर अच्छा ज्ञान होने पर भी कक्षा शिक्षण में असफल होते हैं। प्रभावपूर्ण ढंग से शिक्षण करने के लिए शिक्षक को सीखने के विभिन्न सिद्धान्तों का ज्ञान, सीखने की समस्याओं और सीखने को प्रभावित करने वाले कारणों के बारे में जानकारी होनी चाहिए, ताकि वह छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित कर सके। - व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान कराता है।
संसार में कोई भी दो व्यक्ति बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विशिष्ट होता है। एक कक्षा में शिक्षक को 30 से 50 छात्रों को पढ़ाना होता है, जिनमें अत्यधिक व्यक्तिगत भिन्नता होती है। यदि शिक्षक को इस बात का ज्ञान हो जाए, तो वह अपना शिक्षण सम्पूर्ण छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला बना सकता है। - व्यक्ति के विकास पर वंशानुक्रम एवं वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है, यह मनोविज्ञान बताता है।
वंशानुक्रम किसी भी गुण की सीमा निर्धारित करता है और वातावरण उस गुण का विकास उसी सीमा तक करता है। अच्छा वातावरण भी गुण को उस सीमा के आगे विकसित नहीं कर सकता। - पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता
विभिन्न स्तरों के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त सहायता पहुंचाते हैं। छात्रों की आवश्यकताओं, उनके विकास की विशेषताओं, सीखने के तरीकों और समाज की आवश्यकताओं को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में व्यक्ति और समाज दोनों की आवश्यकताओं को सम्मिलित रूप में रखना चाहिए।
(७) मनोविज्ञान विशिष्ट बालकों की समस्याओं एवं आवश्यकताओं का ज्ञान शिक्षक को देता है जिससे शिक्षक इन बच्चों को अपनी कक्षा में पहचान सकें, उन्हें आवश्यकतानुसार मदद कर सकें, उनके लिए विशेष कक्षाओं का आयोजन कर सकें और परामर्श दे सकें।
(८) मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान भी शिक्षक के लिए लाभकारी होता है।
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षणों को पहचानना तथा यह प्रयास करना कि उनकी इस स्वस्थता को बनाए रखा जा सके।
(९) मापन व मूल्यांकन के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का ज्ञान भी मनोविज्ञान से मिलता है।
वर्तमान परीक्षा प्रणाली से उत्पन्न छात्रों में डर, चिंता, नकारात्मक प्रवृत्तियाँ जैसे आत्महत्या करने की प्रवृत्तियाँ छात्रों के व्यक्तित्व का विघटन करती हैं, साथ ही समाज का भी विघटन होता है। अतः सीखने के परिणामों का उचित मूल्यांकन करना और उपचारात्मक शिक्षण देना शिक्षक का ध्येय होना चाहिए।
(१०) शिक्षा मनोविज्ञान समूह गतिकी (ग्रुप डायनेमिक्स) का ज्ञान कराता है।
शिक्षक एक अच्छा पथ-प्रदर्शक, निर्देशक और कुशल नेता होता है। समूह गतिकी के ज्ञान से वह कक्षा रूपी समूह को भली प्रकार संचालित कर सकता है और छात्रों के सर्वांगीण विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकता है।
(११) शिक्षा मनोविज्ञान बच्चों को शिक्षित करने सम्बन्धी विभिन्न विधियों के बारे में अध्ययन करता है और यह खोज करता है कि विभिन्न विषयों जैसे गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भाषा, साहित्य को सीखने से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्त क्या हैं।
(१२) शिक्षा मनोविज्ञान विभिन्न प्रकार के रुचिकर प्रश्नों पर भी विचार करता है, जैसे, बच्चे भाषा का प्रयोग करना कैसे सीखते हैं या बच्चों द्वारा बनाई गई ड्राइंग का शैक्षिक महत्व क्या होता है।
3.2, Basic principles of learning given by Thorndike, Pavlov, Skinner, Bandura, Piaget and Vygotsky
(थार्नडाइक, पावलोव, स्किनर, बंडुरा, पियाजे और वायगोत्स्की द्वारा दिए गए सीखने के सिद्धांत)
थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत (प्रयत्न या ‘प्रयास व त्रुटि’ का सिद्धांत)
ई.एल. थार्नडाइक (E.L. Thorndike) ने प्रयत्न व भूल के सिद्धांत के बारे में बताते हुए कहा कि जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार, एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से संबंध स्थापित हो जाता है, जिसे उद्दीपक-प्रतिक्रिया संबंध कहते हैं।
थार्नडाइक का प्रयोग
थार्नडाइक एक पशु मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने बिल्ली, चूहे, आदि पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि पशु-पक्षी और बच्चे प्रयत्न और भूल द्वारा सीखते हैं। अपने एक प्रयोग में उन्होंने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बंद कर दिया और पिंजड़े के बाहर भोज्य सामग्री रख दी। भोजन, उद्दीपक था, और इसके कारण बिल्ली ने प्रतिक्रिया शुरू की। उसने बाहर निकलने के लिए कई प्रयास किए, पिंजड़े के चारों ओर घूमकर कई पंजे मारे और प्रयत्न करते-करते अचानक उस तार को खींच लिया जिससे पिंजड़े का दरवाजा खुल गया। अगले प्रयासों में उसने तेजी से यह काम सीखा और कम प्रयासों में दरवाजा खोलने में सक्षम हो गई।
प्रयास व त्रुटि का शिक्षा में महत्व
- इस विधि से सीखने की प्रक्रिया सरल हो जाती है।
- यह सिद्धांत करके सीखने पर बल देता है, जो आधुनिक समय में बहुत उपयोगी है।
- यह सिद्धांत बड़े और मंद बुद्धि वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।
- भाषा में शुद्ध उच्चारण वह इसी विधि से सीखता है।
- इस विधि से अनुभव से लाभ उठाने की क्षमता का विकास करता है।
- इस सिद्धान्त से धैर्य व परिश्रम के गुणों का विकास होता है।
- चलना, साइकिल चलाना, गणित के प्रश्न हल करना, कलाकृतियां बनाना आदि सभी में इस सिद्धान्त का विशेष महत्व है।
- हम अपने दैनिक जीवन के कार्यों में इस सिद्धान्त का बहुत अधिक प्रयोग करते हैं।
थार्नडाइक के अधिगम के सिद्धांत के अंतर्गत सीखने के प्रमुख 2 नियमों का उल्लेख किया जो कि इस प्रकार हैं-
सीखने का मुख्य नियम
सीखने का गौण नियम
- सीखने का मुख्य नियम
सीखने का मुख्य सिद्धांत के अंतर्गत थार्नडाइक ने अपने अधिगम सिद्धांत में तीन नियमों का उल्लेख किया-- तत्परता का नियम
सीखने के मुख्य नियम के अंतर्गत यह पहला दर्शित करता है कि बालक तब तक नहीं सीख सकता जब तक वह तत्पर ना हो। अर्थात बालक को अधिगम के दृष्टिकोण से कुछ तभी अधिगम कराया जा सकता है जब वह आंतरिक रूप से कुछ सीखने में रुचि रखता हो और अधिगम विषयवस्तु बालक के स्तर के अनुरूप हो। - अभ्यास का नियम
सिद्धांत के अनुसार, बालक के अधिगम के अंतर्गत सिखाए गए किसी भी चीज का बार-बार दोहराना अनिवार्य है। इस क्रिया के माध्यम से बालक के अंदर उद्दीपन-प्रतिक्रिया बंधन शक्तिशाली होते जाते हैं जिससे बालक को सिखाया गया कार्य स्थाई हो पाता है। - प्रभाव का नियम
अधिगम क्रिया के दौरान बालक को सरल, सहज व प्रभावी माध्यम से अधिगम विषयवस्तु को प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे बालक के अंदर संतोष की भावना जागृत हो और सकारात्मक व्यवहार के अंतर्गत बालक उस चीज को सीख पाए। अधिगम के दौरान यदि बालक सुखद अनुभव करता है, तो अधिगम अधिक सफल होगा।
- तत्परता का नियम
- 2. –सीखने का गौण नियम -थार्नडाइक के द्वारा प्रतिपादित प्रथमा भूल का सिद्धांत सीखने के नियम के अंतर्गत आधारित है, इस नियम के अंतर्गत अभ्यास, दोहराना, पुनरावलोकन आदि को अधिगम के अंतर्गत महत्व दिया गया है।
इस नियम के अंतर्गत कुछ नियम इस प्रकार हैं-
- बहु अनुक्रिया का नियम
इस नियम के अनुसार, व्यक्ति अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए विभिन्न प्रकार के तरीकों का प्रयोग करता है। बहुत सारे ऐसे प्रतिक्रियाएं करता है जब तक उस समस्या का हल मिल न जाए। - आंशिक क्रिया का नियम-इस नियम के अनुसार, किसी भी समस्या के हल के लिए अंतर्दृष्टि सिद्धांत का प्रयोग किया जाता है और आर्थिक क्रिया के माध्यम से समस्या का हल ढूंढा जाता है।
- समानता का नियम– इस नियम के अनुसार, किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर पूर्व अधिगम में प्राप्त अनुभव व परिस्थितियों में समानता होने पर नए अधिगम में सहायता प्राप्त होती है, जिसके वजह से अधिगम स्थानांतरण होने में मदद मिलती है।
- साहचर्य परिवर्तन का नियम – इस नियम के अनुसार, अधिगम के दौरान साहचर्य वातावरण का प्रभाव पड़ता है। थार्नडाइक अधिगम नियम के अनुसार, जैसे कुत्ते के मुंह से भोजन को देखकर लार टपकना स्वाभाविक क्रिया है, परंतु कुछ समय बाद भोजन के बर्तन को ही देखकर लार टपकने लगती है। इसे ही साहचर्य परिवर्तन का नियम कहा गया है।
- मानसिक स्थिति का नियम – जब बालक किसी भी कार्य को सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार होता है, तो वह उस कार्य को जल्दी सीख लेता है और अधिगम प्रक्रिया बहुत अधिक प्रभावी होती है। लेकिन बालक मानसिक रूप से तैयार नहीं होता, तो बालक को अधिगम नहीं कराया जा सकता।
- पावलव का सिद्धांत – इवान पत्रोविच पावलोव (26 सितंबर 1849 – 27 फरवरी 1936) एक रुसी फिजियोलॉजिस्ट थे। पावलोव ने 1904 में फिजियोलॉजी या मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार जीता था, यह पहला रूसी नोबेल पुरस्कार विजेता था। 2002 में प्रकाशित सामान्य मनोविज्ञान की समीक्षा में एक सर्वेक्षण में पावलोव को 20वीं शताब्दी के 24वें सबसे उद्धृत मनोचिकित्सक के रूप में स्थान दिया था। शास्त्रीय कंडीशनिंग या “प्राकृत अनुकूलन” पावलोव के सिद्धांत विभिन्न शैक्षणिक कक्षाओं सहित प्रयोगात्मक और नैदानिक सेटिंग्स में उपयोगी पाए गए हैं।
पावलोव ने इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए अपने पालतू कुत्ते पर एक प्रयोग के द्वारा समझाया। उन्होंने ध्वनि रहित कक्ष तैयार किया और कुत्ते पर प्रयोग आरंभ किए। इस प्रयोग का लक्ष्य था पाचन की क्रिया का अध्ययन करना, परंतु कभी-कभी अनेक उपलब्धियां अचानक ही प्राप्त हो जाती हैं। ऐसा ही पावलोव के साथ हुआ, पाचन क्रिया का अध्ययन करते-करते अधिगम के सिद्धांत का निरूपण हो गया। इसके परिणाम से प्रेरित होकर पावलोव ने जीवन पर्यंत मस्तिष्क और अधिगम के सिद्धांत का अध्ययन किया।
पावलोव का प्रयोग
पावलोव ने अपना प्रयोग अपने पालतू कुत्ते पर किया। उसने इसके लिए एक ध्वनि रहित कक्ष तैयार किया और कुत्ते को भूखा रखकर उसने प्रयोग करने वाली मेंस के साथ बांध दिया। कक्ष में एक खिड़की भी बनाई गई थी जिसमें से कुत्ते को सब कुछ दिखाई देता था। पावलोव ने कुत्ते की लार नली को काटकर इस प्रकार नियोजित किया था कि कुत्ते के मुंह से निकालने वाली लार कांच की ट्यूब में एकत्रित हो जाए।
सबसे पहले पावलोव ने कुत्ते के सामने केवल एक गोश्त का टुकड़ा रखा। कुत्ते को गोश्त पसंद होता है, इसलिए यह कुत्ते के लिए स्वाभाविक था कि गोश्त के गंध और स्वाद के कारण कुत्ते के मुंह से लार टपकना शुरू हो गया और वह कांच की ट्यूब में एकत्रित हो गया। जो भी लार उस ट्यूब में एकत्रित हुई, उसे माप लिया गया।
दूसरी बार जब कुत्ते के सामने गोश्त रखा गया, तो साथ में घंटी भी बजाई गई। कुत्ते के व्यवहार का निरीक्षण करने पर पाया गया कि इस बार कुत्ते के मुंह से बराबर लार टपकने लगी। पावलोव ने इस प्रयोग को कई बार दोहराया और जब-जब कुत्ते को गोश्त दिया गया, तब-तब घंटी भी बजाई गई। एक बार ऐसा हुआ कि कुत्ते के सामने गोश्त न रखकर केवल घंटी बजाई गई और उसकी प्रतिक्रिया का निरीक्षण किया गया। निरीक्षण करने पर पता चला कि कुत्ता अब भी पहले की तरह लार टपका रहा है।
इस प्रयोग से पावलोव ने यह निष्कर्ष निकाला कि कुत्ता घंटी की आवाज से प्रतिबद्ध हो गया है। इस प्रयोग में गोश्त स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जबकि घंटी और स्वाभाविक प्रतिक्रिया के बीच लार का टपकना अनुक्रिया है।
अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत का शैक्षिक महत्व (Educational Implications of Pavlov’s Classical Conditioning Theory of Learning)
अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत व्यवहार पर आधारित है। इस आधार पर वाटसन महोदय ने कहा था कि “मुझे कोई भी एक बच्चा दे दो। मैं उसे जैसा चाहू वैसा बना सकता हूं।” शिक्षा के क्षेत्र में पावलोव महोदय के सिद्धांत का शैक्षिक महत्व निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है:
- क्रियाशीलता का महत्व: इस सिद्धांत के अनुसार, कोई प्राणी तब ही सिखता है जब वह क्रियाशील होता है, यानी जब उसकी मनोस्थिति और क्रियाएं प्रोत्साहित होती हैं।
- अच्छी आदतों का निर्माण: यह सिद्धांत अच्छी आदतों के निर्माण में मदद करता है और बुरी आदतों, आचरण तथा व्यवहार को बदलने में सहायक होता है।
- मानसिक अस्वस्थ बच्चों का इलाज: मानसिक रूप से अस्वस्थ बालकों या असंवेगात्मक रूप से अस्थिर बालकों का इलाज इस अनुबंधन प्रक्रिया से आसानी से किया जा सकता है।
- भय संबंधी मानसिक रोगों का उपचार: विशेषकर भय संबंधी मानसिक रोगियों का उपचार अधिक सफलता पूर्वक किया जा सकता है। यह सिद्धांत उन्हें सुरक्षित माहौल और सकारात्मक उत्तेजनाओं के माध्यम से बदलने में सहायक होता है।
- संबंधों का महत्व: यह सिद्धांत संबंध के सिद्धांत पर बल देता है, जिसका लक्ष्य बालकों को शिक्षा देते समय उनके साथ बेहतर संबंध बनाना होता है।
- पुनरावृत्ति का महत्व: यह सिद्धांत क्रिया की पुनरावृत्ति पर बल देता है और एक शिक्षक को पढ़ाते समय पुनरावृत्ति पर ध्यान देना चाहिए ताकि बच्चों का अधिगम स्थायीत्व प्राप्त कर सके।
- अक्षर विन्यास एवं गुण शिक्षण: सिद्धांत के अनुसार, बच्चों में अक्षर विन्यास एवं गुण शिक्षण का विकास किया जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार, अभ्यास पर अधिक बल दिया जाना आवश्यक है।
- अध्यापक का योगदान: अनुकूलित अनुक्रिया में अध्यापक का योग वातावरण का निर्माण करने में अधिक रहता है। अध्यापक को चाहिए कि वह बच्चों के लिए दंड और पुरस्कार का सही उपयोग करें। इससे अनुकूलित अनुक्रिया का संपादन शीघ्र और प्रभावी रूप से किया जा सकता है।
स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुकूलन का सिद्धांत (B.F. Skinner’s Operant Conditioning Theory)
बी. एफ. स्किनर (1904-1990) को प्रायः कंडीशनिंग के जनक के रूप में जाना जाता है। उसने अधिगम (learning) के क्षेत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि अभिप्रेरण (motivation) से उत्पन्न क्रियाशीलन ही सीखने के लिए उत्तरदायी है।
स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुकूलन (Operant Conditioning) या नैमित्तिक अनुकूलन (Instrumental Learning) सिद्धांत के अनुसार, व्यवहार के परिणाम, क्रिया के होने की संभावना को प्रभावित करते हैं। एक व्यवहार, जिसके पश्चात् एक सुखदायक उद्दीपक जुड़ा हुआ हो, उसके बार-बार होने की संभावना अधिक होती है। लेकिन यदि दूसरा व्यवहार किसी दंडात्मक उद्दीपक से जुड़ा हो, तो उसके होने की संभावना कम हो जाती है।
उदाहरण:
- अगर एक बालक के किसी व्यवहार को मुस्कराहट द्वारा प्रतिक्रिया दी जाती है, तो उस बालक द्वारा वह व्यवहार पुनः करने की संभावना बढ़ जाती है।
- लेकिन अगर ऐसे व्यवहार के लिए गुस्से की प्रतिक्रिया दी जाए तो उस व्यवहार को दुबारा प्रदर्शित करने की संभावना कम हो जाती है।
स्किनर के अनुसार, एक बच्चे के अंदर उसके वातावरण में उपस्थित अनुभवों के आधार पर शर्माने का व्यवहार विकसित हो सकता है। यदि वातावरण को पुनः स्थापित कर दिया जाए, तो बच्चा सामाजिक तौर पर कुशल हो सकता है।
स्किनर के अनुसार, पुरस्कार और दंड एक व्यक्ति के विकास को आकार देते हैं। यह सिद्धांत यह बताता है कि कैसे बच्चे को दंड और पुरस्कार के द्वारा सही और गलत व्यवहार सिखाया जा सकता है, जिससे उनका विकास सही दिशा में हो सके।
उन्होने 2 प्रकार की क्रियाओं पर प्रकाश डाला- क्रिया प्रसूत व उद्दीपन प्रसूत।
जो क्रियाएं उद्दीपन के द्वारा होती हैं, वे उद्दीपन आधारित होती हैं। वहीं क्रिया प्रसूत का सम्बन्ध किसी ज्ञात उद्दीपन से न होकर उत्तेजना से होता है।
स्किनर ने अपना प्रयोग चूहों पर किया।
इसके लिए उन्होंने लीवर वाला एक बॉक्स (स्किनर बाक्स) तैयार किया। जब चूहे का पैर लीवर पर पड़ता, तो खट की आवाज होती थी। इस ध्वनि को सुनकर चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता। यह भोजन चूहे के लिए प्रबलन (reinforcement) का कार्य करता था। चूहा भूखा होने पर प्रेरित होता और लीवर को दबाता। इन प्रयोगों में यह देखा गया कि जब प्राणी स्वयं कोई वांछित व्यवहार करता है, तो उसे पुरस्कार मिलता है। अन्य व्यवहारों के करने पर उसे सफलता प्राप्त नहीं होती, और वह उसी पुरस्कृत व्यवहार को आसानी से सीख लेता है।
निष्कर्ष:
यदि किसी क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपन (जैसे पुरस्कार) मिलता है, तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है। स्किनर के अनुसार, प्रत्येक पुनर्बलन (reinforcement) अनुक्रिया को करने के लिए प्रेरित करता है।
शिक्षा में क्रिया प्रसूत अनुबंधन का महत्व
- शब्द भण्डार में वृद्धि: इसका प्रयोग बच्चों के शब्द भण्डार में वृद्धि के लिए किया जाता है।
- वांछित व्यवहार का सृजन: शिक्षक इस सिद्धांत के द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहार को स्वरूप प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि वे उद्दीपन पर नियंत्रण करके वांछित व्यवहार उत्पन्न कर सकते हैं।
- छोटे-छोटे पदों में शिक्षा: इस सिद्धांत में सीखी जाने वाली क्रिया को छोटे-छोटे पदों में विभाजित करके सीखने की गति और सफलता दोनों बढ़ाई जाती है।
- संतोष का महत्व: स्किनर का मत है कि जब कार्य में सफलता मिलती है, तो संतोष प्राप्त होता है। यह संतोष क्रिया को बल प्रदान करता है और अधिकाधिक अभ्यास से क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है।
- पुनर्बलन (Reinforcement): इस सिद्धांत में पुनर्बलन को विशेष बल दिया जाता है। यह सिद्धांत जटिल व्यवहार वाले और मानसिक रोगियों के लिए वांछित व्यवहार सीखने में विशेष रूप से सहायक होता है।
बंडूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Theory of Social Learning)
अल्बर्ट बंडूरा ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार, व्यक्ति अवलोकन, नकल और आदर्श व्यवहार के प्रतिमान के माध्यम से एक-दूसरे से सीखते हैं। समाज द्वारा स्वीकार किए जाने वाले व्यवहार को अपनाना और वर्जित व्यवहार को नकारना ही सामाजिक अधिगम कहलाता है। इसलिए अल्बर्ट बंडूरा को प्रथम मानव व्यवहार-संज्ञानवादी कहा जाता है।
बंडूरा का प्रयोग (Experiment of Bandura)
बंडूरा ने एक बालक पर बेबीडॉल प्रयोग किया। बंडूरा ने एक बालक को तीन तरह की मूवी दिखाई:
- प्रथम मूवी: इस मूवी में सामाजिक मूल्य आधारित था, जिसे देख कर बालक बेबी डॉल के साथ सामाजिक व्यवहार (social behavior) दिखाता है।
- दूसरी मूवी: प्रेम पर आधारित थी, जिसे देख कर बालक डॉल से स्नेह करता और उसे सहलाता है।
- तीसरी मूवी: हिंसात्मक (violent) दृश्य-युक्त थी, जिसे देख कर बालक गुड़िया की गर्दन को तोड़ देता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
इस प्रयोग से बंडूरा ने यह निष्कर्ष निकाला कि छोटे बच्चों को यह नहीं पता होता कि उन्हें क्या सीखना चाहिए और क्या नहीं। इसलिए बच्चों के सामने हमेशा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान प्रस्तुत करने चाहिए, ताकि वे सही व्यवहार को अपनाएं।
जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत (Theory of Cognitive Development)
जीन पियाजे स्विजरलैंड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) के सिद्धांत को प्रतिपादित किया और इसे वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में प्रस्तुत किया। पियाजे का मानना था कि बच्चों का मानसिक विकास चार मुख्य चरणों में होता है, जिनमें संवेदनात्मक (sensorimotor), पूर्व-प्रचेतन (preoperational), ठोस-प्रचेतन (concrete operational), और औपचारिक (formal operational) चरण शामिल हैं। पियाजे के अनुसार, बच्चों की सोच की प्रक्रिया उनके विकास के साथ बदलती रहती है, और यह एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें वे अपने अनुभवों से सीखते हैं और अपने मानसिक मॉडल को सुधारते रहते हैं।
संज्ञान (Cognition) का मतलब है प्राणी का वह व्यापक और स्थायी ज्ञान, जिसे वह अपने वातावरण, उद्दीपक जगत, और बाहरी जगत के माध्यम से ग्रहण करता है। संज्ञान के अंतर्गत विभिन्न मानसिक क्रियाएं शामिल होती हैं जैसे अवधान (ध्यान केंद्रित करना), स्मरण, चिंतन, कल्पना, अधिगम, वर्गीकरण, समस्या समाधान, निरीक्षण, संप्रत्ययकरण (विचारों का निर्माण), और प्रत्यक्षकरण (मूल्यांकन)। ये सभी मानसिक क्रियाएं एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और परस्पर अंतर संबंधित होती हैं।
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास पर बल देते हुए एक सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे “संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत” कहा जाता है। पियाजे को विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने जीवन के विभिन्न चरणों में संज्ञान के विकास को समझने का प्रयास किया।
विकासात्मक मनोविज्ञान का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक किया जाता है। पियाजे के सिद्धांत के अनुसार, संज्ञानात्मक विकास शैशव अवस्था से शुरू होकर जीवन भर चलता रहता है।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत
पियाजे के अनुसार, “बालक में बुद्धि का विकास उनके जन्म के साथ जुड़ा हुआ है”। उनका मानना था कि प्रत्येक बालक अपने जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों और सहज क्रियाओं के साथ पैदा होता है, जैसे- चूसना, देखना, वस्तुओं को पकड़ना, और वस्तुओं तक पहुंचना। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, उसकी बॉडी क्रियाओं का दायरा बढ़ता जाता है और वह अधिक बुद्धिमान बनता जाता है।
उन्होंने संज्ञानात्मक विकास के इस क्रमिक परिवर्तन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित हैं:
1. संवेदी गामक अवस्था (Sensori-motor Stage)
यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में बालक अपनी ज्ञानेंद्रियों (आंख, नाक, कान, त्वचा) के माध्यम से सीखता है। पियाजे ने इसे “संवेदी-गामक स्कीमा” के रूप में परिभाषित किया, जिसमें बच्चों की क्रियाएं मस्तिष्क से जुड़ी होती हैं। इस अवस्था में बच्चों को वस्तु स्थायित्व (Object Permanence) की समझ आती है। इसका अर्थ है कि बच्चे यह समझने लगते हैं कि जो वस्तुएं वे नहीं देख पा रहे होते, उनका अस्तित्व बना रहता है।
उदाहरण के लिए, यदि बच्चा भूखा है, तो वह रोकर इस स्थिति को व्यक्त करता है।
2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Stage)
यह अवस्था 2-7 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक अपनी अभ्यस्तता और अनुभवों के माध्यम से सीखता है। इस दौरान, वह दूसरों के संपर्क से, खिलौनों से, और अनुकरण के माध्यम से व्यवहार सीखता है। बच्चों में इस अवस्था में कल्पना, प्रतीकात्मक सोच, और भाषा के विकास में वृद्धि होती है। हालांकि, उनका सोच बहुत सीमित होता है और वे ज्यादातर चीजों को अपनी दृष्टि से ही समझते हैं।
उदाहरण: इस अवस्था में बच्चा वस्तुओं को क्रम से रखना, हल्की और भारी वस्तुओं में भेद करना, अक्षरों को लिखना, रंगों को पहचानना, और माता-पिता की आज्ञा मानना आदि सीखता है।
3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Stage)
यह अवस्था 7-11 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक अधिक तार्किक सोचने लगता है और वह वास्तविक, भौतिक वस्तुओं के बारे में बेहतर समझ प्राप्त करता है। इस समय बच्चा मानसिक रूप से अधिक संगठित और संरचित होता है और वह समस्याओं को हल करने में सक्षम होता है, लेकिन वह अब भी बहुत अधिक अमूर्त (abstract) विचारों को समझने में सक्षम नहीं होता।
4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational Stage)
यह अवस्था 11 वर्ष और उससे अधिक की होती है। इस अवस्था में बालक अमूर्त सोच (abstract thinking) करने में सक्षम होता है। वह परिकल्पना, सिद्धांत, और अधिक जटिल विचारों को समझने लगता है। इस अवस्था में बालक भविष्य की संभावनाओं, सिद्धांतों, और समस्याओं का विश्लेषण करता है और अपने निर्णयों को तार्किक रूप से प्रस्तुत करता है।
पियाजे के सिद्धांत का महत्व
पियाजे का सिद्धांत इस बात को उजागर करता है कि बच्चों के मानसिक विकास में समय और अनुभव के साथ बदलाव आते हैं। उनके सिद्धांत ने यह सिद्ध किया कि संज्ञानात्मक विकास एक क्रमिक और निरंतर प्रक्रिया है। इसके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में यह समझने में मदद मिली कि बच्चों के मानसिक विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है, और इसके आधार पर शिक्षा को अनुकूलित किया जा सकता है।
वाइगोत्स्की का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Vygotsky’s Social-Cultural Theory)
वाइगोत्स्की (Lev Vygotsky) एक रूसी मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत को निकट विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development – ZPD) के नाम से भी जाना जाता है। वाइगोत्स्की के अनुसार, बच्चों का विकास समाज और संस्कृति से जुड़ा होता है, और यह सिद्धांत यह बताता है कि बच्चों को विकासशील अवस्था में उचित मार्गदर्शन और दिशा-निर्देश की आवश्यकता होती है। यह मार्गदर्शन और निर्देश समाज और संस्कृति से मिलता है।
वाइगोत्स्की के सिद्धांत का महत्व:
वाइगोत्स्की के सिद्धांत में समाज और संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है, और यह सिद्धांत बालकों के विकास को सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में देखता है। वाइगोत्स्की का मानना था कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास केवल उनके व्यक्तिगत अनुभव से नहीं होता, बल्कि यह समाज और संस्कृति के माध्यम से भी होता है। वह मानते थे कि बालकों के पास बहुत सारी क्षमता होती है, लेकिन अगर उन्हें उचित मार्गदर्शन (scaffolding) और समर्थन मिल जाए, तो उनका विकास और अधिक तेज़ी से हो सकता है।
वाइगोत्स्की के अनुसार, प्रत्येक बच्चे का संज्ञानात्मक विकास एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो अन्य लोगों के साथ संवाद और सहभागिता से बढ़ता है। यह सिद्धांत शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह बालकों के विकास को एक सामूहिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखता है।
निकट विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development – ZPD)
निकट विकास का क्षेत्र (ZPD) वाइगोत्स्की का एक महत्वपूर्ण विचार है। ZPD वह अंतर होता है जो एक बच्चा किसी कार्य को अकेले करने में सक्षम नहीं होता है, लेकिन यदि उसे किसी वयस्क या सक्षम व्यक्ति से मार्गदर्शन और समर्थन मिलता है, तो वह कार्य करने में सक्षम हो सकता है। वाइगोत्स्की ने यह भी कहा कि बच्चों को ऐसी गतिविधियाँ दी जानी चाहिए जो उनकी ZPD के भीतर हों, ताकि वे खुद को चुनौती दे सकें और साथ ही उन्हें समर्थन भी प्राप्त हो।
वाइगोत्स्की ने यह भी बताया कि जब शिक्षक या मार्गदर्शक बच्चे को सहयोग करता है, तो वह धीरे-धीरे बच्चे की स्वतंत्रता को बढ़ाता है। इसका उद्देश्य यह होता है कि बच्चे को अपने आप कार्य करने में सक्षम बनाया जाए, और अंत में वह कार्य को बिना किसी बाहरी सहायता के कर सके।
वाइगोत्स्की का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Vygotsky’s Social-Cultural Theory) और इसकी शिक्षा में भूमिका:
वाइगोत्स्की का सिद्धांत बालकों के संज्ञानात्मक विकास को समाज और संस्कृति से जोड़ता है। उनके अनुसार, किसी भी बच्चे का संज्ञानात्मक विकास अकेले नहीं हो सकता, बल्कि यह समाज और संस्कृति से प्रभावित होता है। यही कारण है कि सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत के अनुसार शिक्षा और सीखने की प्रक्रिया में समाज और संस्कृति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
MKO (More Knowledgeable Other)
वाइगोत्स्की के सिद्धांत में MKO का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। MKO का अर्थ है “अधिक जानकार व्यक्ति,” यानी वह व्यक्ति जो किसी विशिष्ट क्षेत्र में सीखने वाले व्यक्ति से अधिक ज्ञान रखता हो। अगर सीखने वाले के पास सिखाने वाले से अधिक या समान ज्ञान होता है, तो संज्ञानात्मक विकास में रुकावट आ सकती है। इसलिए वाइगोत्स्की के अनुसार, सीखने वाले को हमेशा ऐसे व्यक्ति से मार्गदर्शन और मदद मिलनी चाहिए, जो उस विषय में अधिक जानकार हो, ताकि वह सीखने में सक्षम हो सके।
Scaffolding (ढांचा)
वाइगोत्स्की के सिद्धांत में Scaffolding का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसका मतलब है एक ऐसी संरचना या सहायक प्रणाली जो बच्चों को किसी कार्य या कौशल में मदद करने के लिए बनाई जाती है। इसे एक सीढ़ी के रूप में समझ सकते हैं, जो बच्चे को उच्च स्तर की सोच और कार्य करने की क्षमता तक पहुंचाने में मदद करती है। जैसे-जैसे बच्चा सीखता है, शिक्षक या मार्गदर्शक उसे कम से कम सहायता प्रदान करते हैं, और अंत में बच्चा स्वयं ही उस कार्य को स्वतंत्र रूप से कर सकता है।
वाइगोत्स्की के सिद्धांत की विशेषताएँ:
- सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ: वाइगोत्स्की के अनुसार, बच्चे का संज्ञानात्मक विकास समाज और संस्कृति से बहुत प्रभावित होता है। यह सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से नहीं, बल्कि समाजिक इंटरएक्शन से भी होता है।
- अधिगम पहले, विकास बाद: इस सिद्धांत के अनुसार, विकास के लिए पहले अधिगम होना जरूरी है। बच्चे को सीखने के लिए पहले एक ठोस आधार की आवश्यकता होती है, और तभी विकास हो सकता है।
- विकास की अंतर्निहित क्षमता: वाइगोत्स्की का मानना था कि बच्चों में संज्ञानात्मक विकास की क्षमता पहले से मौजूद होती है, लेकिन इस क्षमता को समाज और संस्कृति के माध्यम से बाहर लाया जाता है।
- भाषा और संस्कृति का महत्व: वाइगोत्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में भाषा और संस्कृति की अहम भूमिका मानी। बच्चों को अपना सोचने और समझने का तरीका समाज और संस्कृति से ही मिलता है।
- ZPD, MKO, और Scaffolding: वाइगोत्स्की ने ZPD (Zone of Proximal Development), MKO (More Knowledgeable Other), और Scaffolding जैसी अवधारणाओं का प्रयोग किया, जो बच्चों के अधिगम में सहायक होती हैं। ZPD वह क्षेत्र है जहाँ बच्चे को खुद से कार्य करने में समस्या होती है, लेकिन अगर उसे किसी सक्षम व्यक्ति से मार्गदर्शन मिलता है, तो वह वह कार्य कर सकता है।
वाइगोत्स्की का सिद्धांत शिक्षा में:
वाइगोत्स्की के सिद्धांत का शिक्षा में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह शिक्षकों को यह सिखाता है कि कैसे बच्चों को प्रभावी तरीके से सिखाया जाए। यह सिद्धांत निम्नलिखित तरीकों से शिक्षा को प्रभावित करता है:
- विविधता और सहयोग (Collaboration and Diversity): शिक्षक बच्चों को सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में जोड़ते हैं। इससे बच्चों को विभिन्न दृष्टिकोणों से सीखने का अवसर मिलता है।
- Scaffolding (सहायक संरचना): शिक्षक बच्चों को धीरे-धीरे अधिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। पहले वे बच्चों को अधिक मार्गदर्शन और समर्थन प्रदान करते हैं, फिर जैसे-जैसे बच्चे अधिक सक्षम होते हैं, वे कम सहायता प्रदान करते हैं।
- संस्कृति और भाषा का महत्व: वाइगोत्स्की के सिद्धांत में बच्चों के विकास में भाषा और संस्कृति को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को केवल शैक्षिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों और सामाजिक व्यवहारों से भी परिचित कराना होता है।
निष्कर्ष:
वाइगोत्स्की का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत यह दर्शाता है कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास समाज और संस्कृति से प्रभावित होता है। शिक्षक, जो बच्चों के लिए MKO का कार्य करते हैं, उन्हें बच्चों की ZPD के भीतर कार्य करने के लिए मार्गदर्शन और सहायता प्रदान करते हैं। साथ ही Scaffolding की मदद से बच्चों को अधिक से अधिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है, जिससे उनका संज्ञानात्मक विकास बढ़ता है। इस सिद्धांत को शिक्षा में लागू करके बच्चों को उनके विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की जा सकती है।
3.3, Learning styles and types of learners (सीखने की शैलियाँ और शिक्षार्थियों के प्रकार)
शिक्षक और मनोवैज्ञानिकों ने यह पहचाना है कि बच्चों के सीखने की शैलियाँ अलग-अलग होती हैं, और इसे ध्यान में रखते हुए शिक्षक अपनी शिक्षण विधियों को अनुकूलित कर सकते हैं। कुछ प्रमुख सीखने की शैलियाँ निम्नलिखित हैं:
प्रिंट शिक्षार्थी (Print Learners): ये छात्र डेटा को प्रिंट के रूप में देखना पसंद करते हैं। वे शब्दों में मुद्रित जानकारी पढ़कर और फिर चित्रण या अन्य दृश्य सहायता का अध्ययन करके सीखते हैं। इस प्रकार के छात्र पाठ्यक्रम अवधारणाओं को पढ़ने और समझने में अधिक सक्षम होते हैं।
हैंडआउट्स और स्टडी शीट का उपयोग करने पर विचार करें। छात्र अपनी स्टडी शीट भी बना सकते हैं। वर्ड गेम प्रिंट शिक्षार्थियों को प्रमुख शब्दों और अवधारणाओं को समझने में मदद कर सकते हैं।
देख कर सीखने वाले (Visual learners):
दृश्य शिक्षार्थियों को अवधारणा को ‘देखने’ की आवश्यकता है। शिक्षार्थियों के लिए विचार को देखने का एक तरीका विजुअलाइजेशन के माध्यम से है। ओवरहेड पारदर्शिता या बोर्ड का उपयोग करके बुनियादी अवधारणाओं पर चर्चा करें। इसके अलावा, पारदर्शिता या बोर्ड पर वर्णनात्मक वाक्यांश या विचार लिखने से पहले छात्रों से एक मानसिक चित्र बनाने के लिए कहें।
दृश्य शिक्षार्थियों के लिए दृश्य एड्स विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। आज की पाठ्यपुस्तकें छवियों से भरी हुई हैं। कुछ छात्रों के लिए, ये चित्र सीखने की कुंजी हैं, जबकि दूसरों के लिए, वे सुदृढीकरण प्रदान करते हैं। पाठ्यपुस्तक में दृश्य छवियों के अलावा, ओवरहेड पारदर्शिता, वीडियो टेप, स्लाइड और प्रस्तुति ग्राफिक्स सभी का उपयोग छात्रों को अवधारणाओं और कौशल की कल्पना करने में मदद करने के लिए किया जा सकता है। समृद्ध मल्टीमीडिया घटकों वाली वेब साइटों का उपयोग प्रक्रियाओं को प्रदर्शित करने या अवधारणाओं का पता लगाने के लिए प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
श्रवण शिक्षार्थी (Auditory learners):
श्रवण शिक्षार्थी सर्वोत्तम उच्च सुनवाई से सीखते हैं। श्रवण शिक्षार्थी जो पाठ्यपुस्तक का पाठ पढ़ते हैं, प्रमुख विचारों के बोले गए सुदृढीकरण से लाभान्वित होते हैं। अन्य शिक्षकों, अतिथि वक्ताओं और परिवार के सदस्यों को अपनी कक्षा को संबोधित करने के लिए कहने पर विचार करें। छात्रों से चर्चा गतिविधियों के भाग के रूप में अपने पठन को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए कहें। पहले असाइनमेंट के निर्देशों को जोर से पढ़ें और श्रवण शिक्षार्थियों को नई प्रक्रिया या प्रक्रिया में शामिल कदमों को बताना सुनिश्चित करें।
स्पेलिंग के बाद तैयार की गई शब्दावली गतिविधि विकसित करें। इस तरह की गतिविधि सामाजिक संपर्क, प्रतिस्पर्धा और आंदोलन के अतिरिक्त लाभ प्रदान करती है। कुंजी, अवधारणा समझ को संक्षेप में प्रस्तुत करने करें। TRICKY या सुदृढ़ करने में सहायता के लिए छात्र मौखिक प्रस्तुतियों का उपयोग कर सकते हैं।
स्पर्श सीखने वाले (Tactile learners):
स्पर्श करने वाले शिक्षार्थी वस्तुओं को छूकर या संभालकर सबसे अच्छा सीखते हैं। चौथी कक्षा तक, स्पर्श सीखने वाले सीखने की गतिविधियों की सराहना करते हैं जो लेखन सहित सूक्ष्म मोटर कौशल का उपयोग करते हैं। सीखने वालों को स्पर्श करने के लिए जोड़तोड़ विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। वे व्यावहारिक गतिविधियों में भाग लेने, भूमिका निभाने और प्रदर्शन बनाने से भी लाभान्वित होते हैं। स्पर्श करने वाले शिक्षार्थियों को याद है कि उन्होंने क्या किया और कैसे किया, जरूरी नहीं कि वे याद रखें कि उन्होंने सुना। दूसरों को क्या करते देखा या क्या नहीं।
कक्षा में एक प्रक्रिया का प्रदर्शन करने के बाद, एक छात्र से प्रदर्शन को दोहराने के लिए कहें।
अन्य छात्रों को प्रदर्शनकारी को प्रशिक्षित करने की अनुमति दें।
जब गतिविधियों में भूमिकाएं लेना शामिल हो, तब तक गतिविधि को दोहराएं जब तक कि प्रत्येक छात्र को प्रत्येक भूमिका निभाने का मौका न मिल जाए।
काइनेटिक शिक्षार्थी (Kinesthetic learners):
काइनेस्टेटिक शिक्षार्थी कक्षा निर्देश में सक्रिय भाग लेकर सर्वश्रेष्ठ हासिल करते हैं। गति सहित गतिज सीखने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो सीखने की प्रक्रिया के लिए विशिष्ट नहीं है। केवल छात्रों को कक्षा में घूमने की अनुमति देना गतिज शिक्षार्थियों के लिए विशेष रूप से सहायक हो सकता है।
इस तरह के छात्रों के लिए, शारीरिक गतिविधियों जैसे खेल, शारीरिक रूप से जटिल कार्यों का अभ्यास, और कक्षा के बाहर का समय उनके सीखने के लिए फायदेमंद हो सकता है।
उदाहरण के लिए, किसी समस्या पर काम करने के लिए बोर्ड के पास जाना, चलने और लिखने के लिए आवश्यक गतियों को शामिल करता है।
डिजाइन गतिविधियाँ जिनमें छात्रों को कमरे के भीतर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर जाने की आवश्यकता होती है।
कुछ गतिविधियों के दौरान, छात्रों को कुछ संसाधनों का उपयोग करने के लिए कमरे में घूमने की अनुमति दें, उदाहरण के लिए, एक शब्दकोश, पेंसिल शार्पनर, या सिंक।
छात्रों को असाइनमेंट पूरा करने के लिए कक्षा में उपलब्ध तकनीकी उपकरणों का उपयोग करने की अनुमति दें।
Unit 3.4: Socio-cultural factors affecting learning (सीखने को प्रभावित करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक कारक)
हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा अद्वितीय है। सामाजिक स्तरीकरण के पदानुक्रमित सिद्धांतों के रूप में धर्म, कर्म और जाति की धारणाएं भारतीय संस्कृति के लिए बुनियादी हैं। इन तत्वों के विन्यास के एक निश्चित स्तर और सर्वसम्मति ने दृढ़ता और भारतीय समाज में संतुलन, और इसलिए इसकी संस्कृति में कोई बड़ी तबाही नहीं हुई है। ऐसा कहा जाता है कि परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्था में है। दूसरे शब्दों में, बुनियादी सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य और मानदंड अभी भी कुछ संशोधनों के साथ जारी हैं। हजारों जाति समूहों में विविधता परिलक्षित होती है, जिनमें से प्रत्येक के अपने अनुष्ठान, संस्कार, नियम और रीति-रिवाज हैं। इसे भाषाई, धार्मिक और अन्य जातीय भिन्नताओं के संदर्भ में देखा जा सकता है। ‘जीवन की शैली एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है और एक ही गाँव के भीतर विभिन्न जातियों और धार्मिक समूहों के बीच भी भिन्न होती है। कुछ शासकों ने अनेकता में एकता सुनिश्चित करने के लिए सचेत प्रयास किए।
‘सामाजिक विविधता’ द्वारा, एक निश्चित भू-राजनीतिक सेटिंग के भीतर विभिन्न सामाजिक समूहों का सह-अस्तित्व या सरल शब्दों में, समूहों में समाज का भेदभाव। अन्य शब्द जैसे, ‘बहुलता’, ‘बहुसंस्कृतिवाद’, ‘जातीय भेदभाव’ आदि। इस सुविधा को समझाने के लिए परस्पर विनिमय भी किया जाता है। वह समाज की संरचना के आधार पर कार्यात्मक और दुराचारी समाज की विविधता को मान सकता है। इस स्तर पर जो प्रश्न उठ सकता है वह यह है कि ‘एक समाज अपनी जैविक एकता को खोए बिना कितना बहुलवादी बन सकता है?’ समूहों के विभाजन के बावजूद, एक बिना कितनी अंतर्निहित एकता संपूर्ण भारतीय सामाजिक व्यवस्था में चलती है। भारत में सामाजिक विविधता की प्रकृति को समझने के लिए, विविधता बनाने वाली पहचानों की प्रकृति को समझना महत्वपूर्ण है।
सामाजिक विविधता के प्रकार:
- भाषा: भाषा किसी भी समाज में समूह एकजुटता का एक प्रमुख संकेतक है।
- धर्म: धर्म व्यक्तियों और समूहों के बीच सामाजिक एकीकरण की एक महत्वपूर्ण बाध्यकारी शक्ति है।
- जाति: जाति सामाजिक संबंधों की एक प्रणाली है। यह भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो सजातीय विवाह, पदानुक्रम, व्यावसायिक संबंध, शुद्धता और प्रदूषण, और अभिलेखीय स्थिति पर आधारित है।
- जनजाति: भारत में जनजातीय लोग अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक समूह हैं।
- लिंग: लिंग पुरुष और महिला के बीच सामाजिक-जैविक अंतर का एक रूप है।
भारत विविधताओं का देश है। इसकी विविधता भाषा, धर्म, जाति, जनजाति और लिंग के संदर्भ में व्यक्त की जाती है। विविधता आंतरिक भेदभाव और बाहरी प्रभाव दोनों का परिणाम है। विभेदीकरण और एकीकरण की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रही है। जिन समूहों को एक सामाजिक मार्कर पर विभेदित किया गया है, उन्हें दूसरों पर एकजुट देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, जो समूह धार्मिक आधार पर विभाजित हैं जैसे कि हिंदू-मुस्लिम आदि, भाषा, लिंग आदि।
विविधता के बीच एकता भारतीय समाज में प्रचलित है। हालाँकि, विविधता और एकता के बीच संतुलन नाजुक और कई समस्याओं से भरा है। विभिन्न समूहों के बीच शक्ति संबंधों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। समाज में विविधता की मौजूदगी के बावजूद एकता की भावना को बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसके लिए समाज के भीतर समानता और सहिष्णुता के सिद्धांतों को प्रोत्साहित किया जाता है।
Unit 3.5: Implications for children with special needs (विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए निहितार्थ)
लोग कैसे सीखते हैं, इसके बारे में कई अलग-अलग मान्यताएं हैं। स्कूलों के भीतर, इन सिद्धांतों को शिक्षकों द्वारा छात्रों के अनुभव को अधिकतम करने के लिए लागू किया जाता है। छात्रों के लिए प्रचलित एक लागू सिद्धांत को लागू करके, शिक्षक छात्रों को प्रासंगिक जानकारी बनाए रखने में मदद कर सकते हैं। यह इस बात पर लागू होता है कि सीखने के सिद्धांत और विशेष शिक्षा एक साथ कैसे काम कर सकते हैं।
विशेष शिक्षा कक्षाओं में, शिक्षकों को इन शिक्षण सिद्धांतों को लागू करने की आवश्यकता होती है, ताकि एसपीईडी कक्षाओं में छात्र अपने सीखने का अधिक से अधिक लाभ उठा सकें। कुछ सिद्धांत जो विशेष शिक्षा कक्षाओं पर लागू होते हैं वे हैं: गेस्टाल्ट, कनेक्शन थ्योरी, गैग्ने की सीखने की शर्तें, कॉग्निटिव लोड थ्योरी, और साइन लर्निंग थ्योरी।
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि छात्रों के लिए कुछ कनेक्शनों को मौखिक रूप से और आवेदन में बनाने की आवश्यकता हो सकती है क्योंकि एसपीआरआई में सभी छात्र स्वतंत्र रूप से डॉट्स को जोड़ने के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते हैं। “द कॉग्निटिव लोड थ्योरी” और “साइन लर्निंग थ्योरी” छात्रों को पूरी तरह से मदद करने के लिए सरल बनाने और शायद रेखाएँ खींचने के इस विचार को दूर करती है। कुछ विशेष शिक्षा के छात्रों के लिए बिंदुओं को जोड़ने में मदद करने का एक तरीका कनेक्शन सिद्धांत है। यह उत्तेजना और प्रतिक्रिया के कारण-प्रभाव संबंध से सीखने वाले छात्रों पर आधारित है। घटक प्रदर्शन सिद्धांत और सीखने की शर्तें मौखिक और व्यावहारिक दोनों से सीखने के लिए विभिन्न तत्वों को शामिल करने पर आधारित हैं। वे एक समान संरचना पर भी चर्चा करते हैं जो सीखने की प्रक्रिया के दौरान पालन करने में सहायक होती है।
इन सभी शिक्षण सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, प्रशिक्षक इस आधार पर पाठ पढ़ा सकते हैं कि छात्र जानकारी को सर्वोत्तम तरीके से कैसे सीखेंगे। ऐसा लगता है कि यह समावेशी स्कूल सेटिंग्स के विश्वासों में हस्तक्षेप करता है। चूंकि विशेष आवश्यकता वाले बच्चे अलग होते हैं और अलग तरह से सीखते हैं, इसलिए हो सकता है कि एक पारंपरिक शिक्षक इस अल्पसंख्यक समूह में अपने पाठों को निर्देशित नहीं कर रहे हों।
NBPTS (National Board for Professional Standards), शिक्षकों को शिक्षण सिद्धांतों में अपने स्वयं के विश्वास की खोज करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इससे शिक्षकों को आत्म-जागरूकता प्रदान करने में मदद मिलती है। शिक्षकों को प्रतिबिंबित करने के लिए एक संरचना प्रदान करके, यह शिक्षकों के नौकरी शिक्षण और उनके छात्रों तक पहुंचने का आकलन करने में मदद कर सकता है, जो बदले में समग्र शैक्षिक वातावरण को बेहतर बनाने में मदद करता है।