Special Diploma, IDD, Paper-6, TEACHING APPROACHES AND STRATEGIES (शिक्षण दृष्टिकोण और रणनीतियाँ), Unit-1
Unit 1: Teaching Principles and Techniques
1.1. Stages of learning – Acquisition, maintenance, fluency, and generalization
1.2. Principles of teaching – Concrete, iconic/representational, symbolic
1.3. Teaching methods – e.g., multisensory, play way, Montessori, Project, Teaching strategies – Principles of reinforcement, task analysis, prompting, fading, shaping, chaining
1.4. Selection and use of TLM (Teaching Learning Material), and Information and Communication Technology (ICT) for teaching
1.5. Evaluation – Continuous and comprehensive evaluation, progress monitoring, and documentation
यूनिट 1: शिक्षण के सिद्धांत और तकनीकें
1.1. अधिगम के चरण – अधिग्रहण, रखरखाव, प्रवाह और सामान्यीकरण
1.2. शिक्षण के सिद्धांत – ठोस, चिह्नात्मक/प्रस्तुतीकरणात्मक, प्रतीकात्मक
1.3. शिक्षण विधियाँ – उदाहरण के लिए, बहु-संवेदी, खेल विधि, मोंटेसरी, परियोजना, शिक्षण रणनीतियाँ – सुदृढीकरण के सिद्धांत, कार्य विश्लेषण, प्रॉम्पटिंग, फीकी करना, आकार देना, चेनिंग
1.4. TLM (शिक्षण सामग्री) और सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का चयन और उपयोग
1.5. मूल्यांकन – निरंतर और समग्र मूल्यांकन, प्रगति निगरानी और दस्तावेजीकरण
यूनिट – 1: शिक्षण सिद्धांत और तकनीक
यूनिट 1-1: सीखने के चरण – अधिग्रहण (अर्जन), रखरखाव, प्रवाह और सामान्यीकरण (Stages of Learning – Acquisition, Maintenance, Fluency and Generalization)
एंड क्रो, 1975 ने “सीखना आदत, ज्ञान और अभिवृत्ति का अर्जन है।” के रूप में इसे परिभाषित किया है। इसमें नए तरीके सीखने और नई स्थितियों के लिए व्यक्ति के प्रयास को बढ़ाने की प्रक्रिया शामिल है। यह व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करता है और यह आगे व्यक्ति को लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए रुचि को संतुष्ट करने में सक्षम बनाता है।
सीखने के चरण (Stages of Learning):
1. अधिग्रहण (Acquisition):
इस चरण में, बच्चे को पहली बार एक नया कार्य पेश किया जाता है। प्रारंभ में, बच्चा गलतियाँ करता है, लेकिन समय के साथ वह उस गतिविधि को अधिक सटीकता के साथ करता है। इस दौरान, उच्च स्तरीय संवाद और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है क्योंकि बच्चा एक नया कार्य सीखने की प्रक्रिया में होता है।
2. प्रवाह (Fluency):
एक बार जब बच्चा गतिविधि को उच्च सटीकता के साथ करना सीख जाता है, तो अब हमें प्रवाह के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना होता है। इस चरण में, बच्चे स्वतंत्र रूप से काम करते हैं और उन्हें अभ्यास करने के पर्याप्त अवसर दिए जाते हैं। हालांकि, कई गतिविधियाँ जो प्रवाह को बढ़ाती हैं, वे दोहराई जाती हैं, इसलिए वे उतनी मनोरंजक या दिलचस्प नहीं होतीं। इस आवश्यक चरण में बच्चों की प्रेरणा को उच्च बनाए रखने के लिए, उनकी प्रगति पर नियमित प्रतिक्रिया और पुरस्कार देना आवश्यक है। यह महत्वपूर्ण है कि बच्चे उच्च सटीकता के साथ एक कार्य को करें क्योंकि यह बच्चों के अच्छे तरीके से सीखने या समस्याओं का सामना करने के बीच अंतर बना सकता है।
3. रखरखाव (Maintenance):
हम बच्चों को यह भूलने के लिए समय नहीं दे सकते कि उन्होंने क्या सीखा है और फिर से कौशल सिखाना शुरू कर सकते हैं। समय के साथ, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे बिना किसी अतिरिक्त शिक्षण के अपने प्रदर्शन के स्तर को बनाए रखें। हालांकि, हम संयोग से यह नहीं होने की प्रतीक्षा कर सकते, इसलिए इस चरण का उद्देश्य बच्चों को इस स्थिति तक पहुँचने के लिए प्रशिक्षित करना है। रखरखाव के चरण के अंत में, बच्चों को अपने शिक्षक से किसी भी तरह की सहायता प्राप्त किए बिना, उच्च सटीकता और प्रवाह के साथ, अपने दम पर कार्यों को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए। इसके अलावा, यह अपेक्षित है कि जैसे-जैसे वे इन चरणों से गुजरते हैं, वे नए कौशल सीखने के लिए अधिक प्रेरित होंगे
4. सामान्यीकरण (Generalization)
जबकि पदानुक्रम के पहले तीन चरण (अधिग्रहण, प्रवाह, और रखरखाव) कौशल या गतिविधि को सीखने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, सामान्यीकरण इस बात का प्रतिनिधित्व करता है कि अब बच्चा एक ही कार्य से आगे बढ़कर दो या दो से अधिक कार्यों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इन कार्यों को पहले अलग-अलग पढ़ाया जाता है और रखरखाव के चरण में प्रगति की जाती है। बच्चा अब इन कार्यों के बीच भेदभाव करता है और सही प्रतिक्रिया का चयन करता है। उदाहरण के लिए, संख्यात्मक कार्यों में जोड़, घटाव, गुणा और भाग के लिए संकेत।
विभेदीकरण (Discrimination) भी सामान्यीकरण का एक प्रकार है, जिसमें बच्चे एक ही कार्य के प्रति वही प्रतिक्रिया देते हैं, चाहे उसके विभिन्न पहलू बदल गए हों। उदाहरण के लिए, बच्चों को अंक “8” को पहचानने के लिए सिखाया जाता है, चाहे वह विभिन्न रंगों, आकारों या पृष्ठभूमियों में प्रस्तुत हो। इसी प्रकार, एक अन्य उदाहरण में, बच्चे को विभिन्न प्रकार के कागज या कपड़े से सीधी रेखा पर काटने की गतिविधि दी जाती है, और उनकी प्रतिक्रिया समान रहती है, चाहे सामग्री अलग हो।
Unit 1.2: शिक्षण के सिद्धांत – ठोस, प्रतिष्ठित, और प्रतीकात्मक (Principles of Teaching: Concrete, Iconic, and Symbolic)
हर बच्चा दूसरे से अलग होता है और इसलिए व्यक्तिगत निर्देश की आवश्यकता होती है। कुछ बुनियादी सिद्धांत हैं, जो किसी भी कौशल को सिखाते समय ध्यान में रखने चाहिए, ताकि शिक्षण अधिक प्रभावी और उद्देश्यपूर्ण हो सके।
शिक्षण के कुछ प्रमुख सिद्धांत:
- सरल से जटिल (Simple to Complex):
शिक्षण हमेशा एक ऐसे कदम से शुरू होना चाहिए जिसमें बच्चा सफलता के साथ मिल सके। इससे बच्चा आगे सीखने के लिए प्रेरित होता है। लक्ष्य जो बच्चे के लिए बहुत जटिल हैं, उनसे बचना चाहिए। जैसे ही बच्चा सरल चरणों को सीखता है, धीरे-धीरे उसे जटिल और विभिन्न चरणों से परिचित कराना चाहिए। उदाहरण के लिए, दांतों को ब्रश करना सिखाते समय, पहले सामने के दांतों से शुरुआत करें, फिर धीरे-धीरे दोनों ओर और बाद में दांतों के अंदर की ओर बढ़ें। - अज्ञात को ज्ञात (Unknown to Known):
शिक्षण की शुरुआत हमेशा बच्चे के वर्तमान स्तर से होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि बच्चे को “कुत्ता” शब्द पढ़ना सिखाना है, तो उसे पहले कुत्ते की तस्वीर से परिचित कराना चाहिए और फिर उसे कुत्ते शब्द को चित्र से मिलाना चाहिए। इससे बच्चा पहले से जानें गए ज्ञान को नया कौशल सीखने के लिए आधार बना सकेगा। - ठोस से अमूर्त (Concrete to Abstract):
किसी भी अवधारणा को सिखाते समय, उसे ठोस उदाहरणों से जोड़ा जाना चाहिए। जैसे, रविवार की अवधारणा सिखाने के लिए, उसे रविवार की गतिविधियों से जोड़ें, जैसे पिता रविवार को कार्यालय नहीं जाते या रविवार को कोई स्कूल नहीं है। इससे बच्चा अमूर्त अवधारणाओं को ठोस रूप में समझ पाता है। - सम्पूर्ण से भाग (Whole to Part):
किसी भी अवधारणा को पहले समग्र रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, और फिर उसे भागों में विभाजित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, शरीर के अंगों के बारे में सिखाने से पहले बच्चे को पूरा शरीर दिखाना चाहिए – यह आदमी है, यह हाथ है, यह सिर है, यह आंखें हैं। फिर, उन अंगों के बारे में विस्तार से सिखाया जा सकता है। - विश्लेषण से संश्लेषण तक (Analysis to Synthesis):
विश्लेषण का मतलब किसी चीज़ को अलग-अलग भागों में तोड़कर समझना है। उदाहरण के लिए, पाचन तंत्र को पढ़ाने से पहले हमें पहले पाचन तंत्र के विभिन्न भागों को अलग-अलग समझना चाहिए, और फिर उनके समग्र कार्य को दिखाना चाहिए। संश्लेषण में सभी भागों को जोड़कर एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाता है। - विशेष से सामान्य की ओर (Specific to General):
शिक्षक को हमेशा विशेष से सामान्य कथन की ओर बढ़ना चाहिए। सामान्य तथ्यों, सिद्धांतों और विचारों को समझना कठिन हो सकता है, इसलिए पहले विशेष उदाहरण देने चाहिए और फिर सामान्य सिद्धांतों को समझाना चाहिए।
उदाहरण के लिए, अगर शिक्षक अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं और निरंतर काल (Present Continuous Tense) सिखा रहे हैं, तो पहले कुछ उदाहरण दें और बाद में सामान्य नियमों को समझाएं।
जेरोम ब्रूनर और शिक्षा (Jerome Bruner and Education)
संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक जेरोम ब्रूनर का मानना था कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बौद्धिक विकास होना चाहिए, न कि तथ्यों को रट कर याद रखना। उनका विचार था कि शिक्षा को बच्चों के मानसिक विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिससे वे समस्या समाधान में सक्षम हो सकें। यह पाठ ब्रूनर के विकासात्मक सिद्धांत और उनके प्रतिनिधित्व के तीन चरणों पर चर्चा करेगा। हम उनके सीखने, भाषा, और खोज पर विश्वासों का भी पता लगाएंगे, और उनके विचारों को जीन पियाजे के विचारों से अलग करेंगे।
ब्रूनर के शिक्षा और सीखने के सिद्धांत:
ब्रूनर ने शिक्षा और सीखने के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण विश्वास रखे:
- समस्या समाधान कौशल का विकास:
ब्रूनर का मानना था कि पाठ्यचर्या को जांच और खोज की प्रक्रियाओं के माध्यम से समस्या समाधान कौशल के विकास को बढ़ावा देना चाहिए। उनका मानना था कि बच्चों को खुद से समस्या हल करने का अवसर मिलना चाहिए, जिससे वे सक्रिय रूप से सीखने में शामिल हो सकें। - बच्चों के दृष्टिकोण से पाठ्यचर्या:
उनके अनुसार, विषय वस्तु (subject matter) को बच्चे की दुनिया को देखने के तरीके के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। पाठ्यचर्या को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए कि यह बच्चों की समझ को बढ़ाए और कौशल के माध्यम से सशक्त बनाए। - अवधारणाओं का व्यवस्थित प्रस्तुतिकरण:
ब्रूनर ने अवधारणाओं (concepts) को व्यवस्थित करके शिक्षण और खोज द्वारा सीखने की वकालत की। उन्होंने कहा कि यह बच्चों को अवधारणाओं को समझने और सीखने में मदद करता है। - संस्कृति का प्रभाव:
ब्रूनर का मानना था कि संस्कृति को उन धारणाओं को आकार देना चाहिए जिनके माध्यम से लोग अपने और दूसरों के विचारों को व्यवस्थित करते हैं और जिस दुनिया में वे रहते हैं।
AWA प्रतिनिधित्व के तीन चरण (Three Stages of Representation)
ब्रूनर ने संज्ञानात्मक प्रतिनिधित्व के तीन चरणों का उल्लेख किया, जो इस प्रकार हैं:
- सक्रिय (Enactive):
यह ज्ञान का प्रतिनिधित्व क्रियाओं के माध्यम से होता है। इस चरण में सूचना का एन्कोडिंग और भंडारण शामिल है, और यह प्रक्रिया आंतरिक प्रतिनिधित्व के बिना वस्तुओं का सीधे हेरफेर करने से जुड़ी होती है। उदाहरण के तौर पर, यदि एक बच्चा खड़खड़ाहट करता है और शोर सुनता है, तो वह बच्चा सीधे खड़खड़ाहट में हेरफेर करता है। इसके बाद, बच्चा अपने हाथों को हिला सकता है, भले ही खड़खड़ाहट न हो, और उसे उम्मीद होती है कि उसकी हरकत से वही ध्वनि उत्पन्न होगी। - आइकॉनिक (Iconic):
यह चरण 1 से 6 साल की उम्र में आता है। इस चरण में बाहरी वस्तुओं का मानसिक चित्र या छवि के रूप में आंतरिक प्रतिनिधित्व होता है। उदाहरण के लिए, यदि बच्चा किसी पेड़ की छवि बनाता है या किसी पेड़ के बारे में सोचता है, तो यह आइकॉनिक चरण का प्रतिनिधित्व करेगा। - प्रतीकात्मक (Symbolic):
यह चरण 7 साल और उससे अधिक उम्र के बच्चों में दिखाई देता है। इस चरण में जानकारी को एक कोड या प्रतीक जैसे भाषा के रूप में संग्रहीत किया जाता है। प्रत्येक प्रतीक का उस चीज से एक निश्चित संबंध होता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, शब्द “कुत्ता” जानवरों के एक वर्ग का प्रतीक है। इस चरण में, अधिकांश जानकारी शब्दों, गणितीय प्रतीकों, या अन्य प्रतीक प्रणालियों में संग्रहीत की जाती है।
ब्रूनर का मानना था कि सभी सीखना उन चरणों के माध्यम से होता है जिन पर हमने अभी चर्चा की है। उनका यह भी मानना था कि सीखने की शुरुआत वस्तुओं के सीधे हेरफेर से होनी चाहिए।
उदाहरण के तौर पर, गणित की शिक्षा में ब्रूनर ने बीजगणित टाइलों, सिक्कों और अन्य ऐसी वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा दिया, जिन्हें छात्र सीधे हेरफेर कर सकते थे। यह वस्तुएं छात्रों को संज्ञानात्मक और व्यावहारिक रूप से अवधारणाओं को समझने में मदद करती थीं, क्योंकि इससे वे वस्तु-आधारित अनुभवों से सीखने की प्रक्रिया में शामिल होते थे।
एक शिक्षार्थी को वस्तुओं में सीधे हेरफेर करने का अवसर मिलने के बाद, उन्हें आकृतियाँ या आरेख बनाने जैसे दृश्य प्रतिनिधित्व बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे विद्यार्थी वस्तुओं या घटनाओं का मानसिक चित्र बना पाते हैं, जो उनके सीखने को और अधिक स्पष्ट और संगठित बनाता है।
अंत में, एक शिक्षार्थी उन प्रतीकों को समझता है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण के लिए, गणित में, एक छात्र यह समझता है कि धन चिह्न (+) का अर्थ है दो संख्याओं को जोड़ना और ऋण चिह्न (-) का अर्थ है घटाना।
ब्रूनर के अनुसार, यह तीन चरणों का क्रम—सक्रिय प्रतिनिधित्व (वस्तुओं के साथ हेरफेर), आइकॉनिक प्रतिनिधित्व (दृश्य प्रतीकों का उपयोग), और प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (संकेतों और प्रतीकों का उपयोग)—शिक्षण की नींव रखता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से, बच्चे संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न स्तरों पर अपनी सोच को व्यवस्थित और समृद्ध करते हैं।
ब्रूनर के अनुसार, इन तीनों प्रतिनिधित्व चरणों के माध्यम से बच्चे अपनी समझ को विकसित करते हैं और जटिल अवधारणाओं को सीखने की दिशा में कदम बढ़ाते हैं। उनके दृष्टिकोण ने शिक्षा में एक नया दृष्टिकोण पेश किया, जिसमें बच्चों को सक्रिय रूप से अपने ज्ञान का निर्माण करने का अवसर दिया जाता है, और उन्हें खोज, समस्या हल करने, और विचारशीलता के लिए प्रेरित किया जाता है।
1.3 Teaching methods – e.g., multisensory, play way, Montessori, Project, Teaching strategies –
Principles of reinforcement, task analysis, prompting, fading, shaping chaining
Multisensory Approach (बहु-संवेदी अधिगम):
यह दृष्टिकोण मानता है कि लोग अधिक प्रभावी तरीके से सीखते हैं जब एक से अधिक इंद्रियां (जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, आदि) एक साथ उपयोग की जाती हैं। अध्ययन बताते हैं कि बहु-संवेदी अनुभव मस्तिष्क को बेहतर तरीके से जानकारी प्रोसेस करने में मदद करता है, खासकर जब इंद्रियां एक साथ काम करती हैं और निर्देश स्पष्ट होते हैं
Project Method (परियोजना विधि):
इसमें छात्रों को परियोजनाओं या स्थितियों के बारे में निर्णय लेने का अवसर मिलता है। वे सामूहिक रूप से योजना बनाकर परियोजना को पूरा करते हैं। शिक्षक यहां एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं, न कि आदेश देने वाले के रूप में।
परियोजना पद्धति एक शैक्षिक दृष्टिकोण है जो छात्रों को अनुभव आधारित सीखने का अवसर देती है। इसे प्रोफेसर विलियम किलपैट्रिक ने विकसित किया, और इसे “सामाजिक वातावरण में उद्देश्यपूर्ण गतिविधि” के रूप में परिभाषित किया गया। इसमें छात्रों को समस्याएँ दी जाती हैं और वे प्राकृतिक सेटिंग्स में उन्हें हल करते हैं।
मुख्य परिभाषाएँ:
- जेए स्टीवेन्सन: “एक परियोजना एक समस्यात्मक कार्य है जिसे उसकी प्राकृतिक सेटिंग में पूरा किया जाता है।”
- किलपैट्रिक: “एक परियोजना पद्धति एक सामाजिक वातावरण में उद्देश्यपूर्ण गतिविधि है।”
प्रोजेक्ट विधि के 5 चरण:
- परियोजना का चयन: छात्रों को व्यावहारिक समस्याएँ दी जाती हैं और वे उपयुक्त परियोजना चुनते हैं।
- योजना: छात्र अपने कार्य की योजना बनाते हैं, शिक्षक मदद करते हैं।
- निष्पादन: छात्र योजना के अनुसार परियोजना पर काम करते हैं।
- मूल्यांकन: कार्य की समीक्षा की जाती है और सुधार के बिंदु पहचाने जाते हैं।
- रिकॉर्डिंग: परियोजना की सभी गतिविधियाँ और परिणाम दर्ज किए जाते हैं।
परियोजना विधि के गुण
- खुद सीखने पर जोर: इस पद्धति में छात्र गतिविधियों में खुद भाग लेते हैं, जिससे उनकी सोचने की क्षमता और अनुभव बढ़ता है।
- शिक्षक का मार्गदर्शन: शिक्षक एक मार्गदर्शक के रूप में काम करता है, जिससे छात्र आत्मनिर्भर बनते हैं।
- समूह में काम: विद्यार्थी एक साथ काम करते हैं, जिससे सीखने का अनुभव मजेदार और सार्थक बनता है।
- सामाजिक गुण: यह पद्धति भाईचारे, सहयोग और सामाजिक गुणों को बढ़ावा देती है।
- संचार कौशल: छात्र खुद को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करते हैं, जिससे उनका संचार कौशल बेहतर होता है।
- लोकतांत्रिक भावना: निर्णय लोकतांत्रिक तरीके से होते हैं, जिससे छात्रों में लोकतांत्रिक भावनाएँ विकसित होती हैं।
- आलोचनात्मक सोच: यह पद्धति छात्रों में आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देती है।
परियोजना विधि के दोष
- अभ्यास की कमी: इस विधि में ड्रिल कार्य (जैसे पढ़ना, वर्तनी, ड्राइंग) की उपेक्षा हो सकती है।
- समय की बर्बादी: यह विधि समय लेने वाली हो सकती है।
- कुशल शिक्षक की आवश्यकता: सफल परियोजना के लिए प्रशिक्षित और संसाधन संपन्न शिक्षक की आवश्यकता होती है।
- सभी विषयों के लिए उपयुक्त नहीं: यह पद्धति सभी विषयों के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती।
- निचले कक्षाओं के लिए उपयुक्त नहीं: यह विधि उच्च कक्षाओं के लिए उपयुक्त है, न कि निचले स्तर के छात्रों के लिए।
- प्राकृतिक वातावरण की आवश्यकता: परियोजना विधि को प्राकृतिक सेटिंग्स में किया जाता है, जो हमेशा संभव नहीं होता।
- महंगी: यह विधि महंगी हो सकती है।
मांटेसरी विधि क्या है
पहले शिक्षा शिक्षक पर केंद्रित थी, लेकिन अब यह छात्र पर केंद्रित है। मांटेसरी विधि 2 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए उपयुक्त है। इसमें बच्चों को स्वतंत्रता दी जाती है, वे खेल, कूद, ज्ञान गोष्ठियों और अन्य विकासात्मक गतिविधियों में भाग लेते हैं। यह विधि बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए बनाई गई है, जहाँ बच्चे खुद शिक्षा ग्रहण करते हैं और उनके व्यक्तित्व का भी विकास होता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 का उद्देश्य भारतीय शिक्षा प्रणाली को और अधिक सुलभ, समान और प्रभावी बनाना था। इसके माध्यम से शिक्षा का उद्देश्य सभी स्तरों पर समान अवसर प्रदान करना और बच्चों की सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करना था।
मांटेसरी विधि के जनक
मांटेसरी विधि के जनक मैडम डॉ. मारिया मांटेसरी हैं, जो इटली से थीं। उन्होंने बालकों की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए गहन अनुसंधान किया और एक मनोवैज्ञानिक शिक्षण पद्धति विकसित की, जिसे मांटेसरी पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति में बच्चों को स्वतंत्रता, खेल, और सर्वांगीण विकास के माध्यम से शिक्षा दी जाती है।
मांटेसरी शिक्षा के प्रमुख लक्ष्य
- स्वतंत्रता पर बल: बालकों को अपनी पसंद के अनुसार खेल, पढ़ाई, और लिखाई की स्वतंत्रता दी जाती है।
- खेल द्वारा शिक्षा: खेल के माध्यम से शिक्षा दी जाती है क्योंकि बच्चों को खेल में ज्यादा रुचि होती है।
- सर्वांगीण विकास: शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, और भावनात्मक विकास पर ध्यान दिया जाता है।
मांटेसरी स्कूल
मांटेसरी स्कूल एक विशेष प्रकार की पाठशाला होती है, जहाँ बच्चों के लिए अलग-अलग कमरे होते हैं। यहां बच्चों के लिए आवश्यक सामग्री और बगीचा होता है। बच्चों का ध्यान रखने के लिए विशेष व्यवस्थाएं की जाती हैं, जैसे विश्राम, भोजन और सफाई के कार्य।
मांटेसरी शिक्षा पद्धति के गुण और दोष
गुण:
- वैयक्तिकता का स्थान: मांटेसरी पद्धति में बच्चों की व्यक्तिगत आवश्यकता को प्राथमिकता दी जाती है।
- इंद्रिय शिक्षा पर बल: बच्चों को उनके इंद्रियों के माध्यम से शिक्षा दी जाती है।
दोष:
- खर्च अधिक: मांटेसरी पद्धति महंगी होती है, जो गरीब देशों में पूरी तरह से लागू नहीं हो सकती।
- तोतलापन: छोटे बच्चों में उच्चारण शुद्धि पर ध्यान नहीं दिया जाता, जिससे कुछ बच्चों में तोतलापन रह सकता है।
- उच्च शिक्षा में अनुपयुक्त: यह पद्धति केवल छोटे बच्चों के लिए उपयुक्त होती है, उच्च शिक्षा के लिए नहीं।
मांटेसरी पद्धति की शिक्षण बातें (Teaching Points of Montessori Method)
- भाषा की शिक्षा
मांटेसरी पद्धति में, लिखना पढ़ने से अधिक सरल माना जाता है क्योंकि लिखते समय उच्चारण की आवश्यकता नहीं होती। बच्चों के लिए यह प्रक्रिया आसान होती है, जबकि पढ़ाई में अधिक कठिनाई हो सकती है। इस पद्धति में बच्चे पहले लिखना सीखते हैं, फिर पढ़ाई की ओर बढ़ते हैं। - कर्मेंद्रियों की शिक्षा
मांटेसरी पद्धति में, बच्चे स्वयं कार्य करते हैं जैसे हाथ मुंह धोना, कपड़े बदलना, सफाई करना आदि। इन गतिविधियों से न केवल उनका शारीरिक व्यायाम होता है, बल्कि शरीर की मांसपेशियां भी मजबूत होती हैं। यह पद्धति बच्चों को स्वच्छता और आत्मनिर्भरता की शिक्षा देती है। - ज्ञानेंद्रियों की शिक्षा
ज्ञानेंद्रियों से जुड़ी शिक्षा में बच्चे अधिक से अधिक अनुभव प्राप्त करते हैं। मैडम मांटेसरी ने यह उद्देश्य रखा था कि ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से बच्चों की बुद्धि का विकास हो। वे कहते थे कि बच्चों को बस्तुओं के रूप, गुण, और रंग का ज्ञान देने से अधिक महत्वपूर्ण है, उनके ज्ञानेंद्रियों को परिष्कृत करना, जिससे उनकी सोच और समझ बढ़े।
खेल विधि (Play-Way Method)
प्राथमिक स्तर पर शिक्षण के लिए खेल विधि को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। खेल द्वारा बच्चों को पढ़ाई में रुचि जागृत की जाती है और यह तरीका बच्चों के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करता है। खेल विधि का प्रयोग गणित और भाषा शिक्षण में भी किया जाता है, जो बच्चों के लिए एक मजेदार और प्रभावी तरीका साबित होता है। इसके प्रर्वतक हेनरी काल्डवेल कुक थे, जिन्होंने अपनी पुस्तक Play Way में इस विधि की उपयुक्तता बताई।
शिक्षण रणनीतियाँ (Teaching Strategies)
बौद्धिक अक्षम बच्चों के लिए विशेष शिक्षण तकनीक की आवश्यकता होती है। इन बच्चों को प्रशिक्षित करने के लिए ध्यान देने योग्य बिंदु हैं:
- उन्हें सार्थक गतिविधियों में व्यस्त रखना।
- शिक्षण योजना को सुनियोजित तरीके से लागू करना।
- प्रत्येक बच्चे की क्षमता और आवश्यकता के अनुसार शिक्षण विधि का चयन करना।
विशेष शिक्षण तकनीक
- कार्य विश्लेषण (Task Analysis)
यह एक विधि है जिसमें बड़े कार्य को छोटे-छोटे चरणों में विभाजित किया जाता है। इसके माध्यम से बच्चों को दैनिक जीवन की गतिविधियाँ और अन्य कौशल सिखाए जाते हैं।- कार्य को उप कार्यों में बांटना।
- उप कार्यों को क्रम में रखना।
- प्रत्येक उप कार्य के लिए निर्देशात्मक लक्ष्य तय करना।
कार्य विश्लेषण की विधि के तहत किसी योग्य व्यक्ति का अवलोकन किया जा सकता है, और उनके द्वारा किए गए कार्यों को लिखा जा सकता है, ताकि बच्चों को उन कार्यों की प्रक्रिया समझाई जा सके।
क्रिया के बारे में विचार करें तथा लिखें:
क्रिया (Action) एक शारीरिक या मानसिक गतिविधि है, जिसे किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, खाना पकाने के लिए सामग्री एकत्र करना, साफ सफाई करना, या गणित के सवाल हल करना, ये सभी क्रियाएं हैं। हर क्रिया के पीछे एक निश्चित उद्देश्य होता है, जैसे समस्या का समाधान या कार्य को पूरा करना।
स्वयं करके देखें:
किसी कार्य को स्वयं करना, शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह बालकों को आत्मनिर्भरता, समस्या हल करने की क्षमता और आत्मविश्वास प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा खुद से एक जोड़ी मोजे पहनने की कोशिश करता है, तो वह न केवल कार्य की प्रक्रिया को समझेगा बल्कि उसे आत्मनिर्भर बनने में मदद मिलेगी।
धीमी गति के वीडियो की सहायता द्वारा क्रिया को देखें:
धीमी गति के वीडियो (Slow Motion Videos) से बच्चों या छात्रों को किसी विशेष क्रिया को अधिक स्पष्टता से समझने में मदद मिलती है। जब कोई कार्य किसी धीमी गति के वीडियो में दिखाया जाता है, तो छात्र या बालक प्रत्येक चरण को ठीक से देख सकते हैं, जिससे उन्हें क्रिया की पूरी प्रक्रिया का बेहतर ज्ञान होता है।
कार्य विश्लेषण (Task Analysis):
कार्य विश्लेषण के अंतर्गत किसी कार्य को छोटे-छोटे उपकार्य (Sub-tasks) में विभाजित किया जाता है, जिससे बच्चा प्रत्येक चरण को आसानी से समझ सके। उदाहरण के तौर पर, दाल और चावल को मिलाकर बिना गिराए चम्मच से खाना, इस क्रिया को छोटे-छोटे चरणों में विभाजित किया जा सकता है, जैसे:
- चम्मच से दाल और चावल उठाना।
- चम्मच को धीरे से मुँह तक लाना।
- चम्मच से खाना खाते समय सावधानी रखना।
श्रृंखलाकरण (Chaining):
श्रृंखलाकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें लक्ष्य व्यवहार (Desired behavior) को छोटे-छोटे चरणों में विभाजित किया जाता है और यह निर्धारित किया जाता है कि किस क्रिया को कब किया जाए। इसे क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित किया जाता है ताकि बच्चा प्रत्येक चरण को सीख सके और अंत में पूरे कार्य को सफलतापूर्वक कर सके।
श्रृंखलाकरण के प्रकार:
- फॉरवर्ड चेनिंग (Forward Chaining):
इसमें पहले चरण से शुरुआत की जाती है और बाद के चरणों को एक के बाद एक जोड़ते जाते हैं।
उदाहरण: मोजे निकालना।- मोजे को एड़ी तक लाना।
- मोजे को पंजे के नीचे लाना।
- मोजे को अंगूठे तक लाना।
- मोजे को अंगूठे से बाहर निकालना।
- बैकवर्ड चेनिंग (Backward Chaining):
इसमें अंतिम चरण से शुरुआत की जाती है और पहले के चरणों को बाद में जोड़ा जाता है।
उदाहरण: मोजे निकालना।- मोजे को अंगूठे से बाहर निकालना।
- मोजे को पंजे के नीचे लाना।
- मोजे को एड़ी से निकालना।
- मोजे को पड़ी तक लाना।
शेपिंग (Shaping):
शेपिंग एक प्रक्रिया है, जिसमें लक्ष्य को छोटे-छोटे चरणों में बाँटा जाता है। हर चरण बच्चे को लक्ष्य के करीब लाता है, और इस प्रक्रिया में बच्चे को पुनर्बलन (Reinforcement) दिया जाता है।
उदाहरण: सुई में धागा डालना।
- 1/2″ व्यास वाली सुई में पतला धागा डालना।
- 1/4″ व्यास वाली सुई में पतला धागा डालना।
- 1/4″ व्यास वाली सुई में मोटा धागा डालना।
- मध्यम आकार की सुई में पतला धागा डालना।
इस प्रकार, बच्चों को क्रिया या कौशल सिखाने में कार्य विश्लेषण, श्रृंखलाकरण और शेपिंग जैसी विधियों का उपयोग किया जाता है, जो उन्हें हर चरण को ठीक से सीखने और समझने में मदद करती हैं।
शेपिंग प्रक्रिया के चरण (Shaping Process Steps):
- व्यवहार का चयन करें – सबसे पहले यह तय करें कि आपको किस प्रकार का व्यवहार सिखाना है, जैसे सुई में धागा डालना।
- बच्चे द्वारा प्रदर्शित प्रारंभिक व्यवहार का मूल्यांकन करें – यह देखें कि बच्चा किस स्तर पर है और उसे किस प्रकार के प्रयासों के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है।
- सशक्त और प्रभावी पुरस्कार का चयन करें – उस प्रयास के लिए एक प्रभावी पुरस्कार का चयन करें, जिससे बच्चा प्रेरित हो।
- प्रारंभिक व्यवहार को पुनर्बलन (Reinforcement) दें – बच्चे को उस व्यवहार के लिए लगातार पुरस्कार दें जब तक कि वह इसे बार-बार न करने लगे।
- प्रत्येक बार व्यवहार में वृद्धि होने पर पुरस्कार प्रदान करें – बच्चे को हर बार उसकी सफलता के लिए पुरस्कार दें ताकि वह बेहतर प्रदर्शन करे।
- लक्ष्य व्यवहार के पूर्ण होने पर पुनर्बलन प्रदान करें – जब बच्चा लक्ष्य को पूरा करता है, तब उसे सशक्त पुरस्कार देकर उसे सही मार्ग पर बनाए रखें।
- लक्ष्य व्यवहार के पूर्ण होने पर पुरस्कार बंद कर दें – जब बच्चा लक्ष्य व्यवहार में सक्षम हो जाता है, तो फिर से पुरस्कार देना बंद करें और उसे स्वाभाविक रूप से व्यवहार करने दें।
शेपिंग प्रक्रिया में लक्ष्य व्यवहार से संबंधित छोटे-छोटे प्रयासों को सिखाया जाता है, और प्रत्येक प्रयास के लिए क्रमबद्ध रूप से पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।
अनुरूपण – मॉडलिंग (Modeling):
मॉडलिंग एक ऐसी विधि है जिसमें शिक्षक बच्चे को यह दिखाता है कि विशिष्ट कार्य को किस प्रकार करना है। इसमें कार्य को खुद कर के दिखाया जाता है, ताकि बच्चे को समझने में आसानी हो।
मॉडलिंग में निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती हैं:
- ऐसी स्थिति बनाना जिसमें बच्चा अन्य बच्चों को लक्ष्य व्यवहार करते हुए देख सके – बच्चों को दूसरों से सीखने का अवसर देना।
- लक्ष्य व्यवहार प्रदर्शित करने पर पुरस्कार देना – जब बच्चा सही व्यवहार दिखाता है, तो उसे तुरंत पुरस्कार प्रदान करें।
- दो या दो से अधिक बच्चों के कार्य निष्पादन स्तर की तुलना न करें – प्रत्येक बच्चे को उसकी व्यक्तिगत गति से सीखने दें, ताकि तुलना के दबाव से बचा जा सके।
सहायता देना – प्राम्पटिंग (Prompting):
प्राम्पटिंग वह प्रक्रिया है जिसमें बच्चों को विशिष्ट लक्ष्य व्यवहार सीखने के लिए सक्रिय रूप से सहायता प्रदान की जाती है।
प्राम्पटिंग के प्रकार:
- शारीरिक सहायता: यह तब होता है जब बच्चे को शारीरिक रूप से सहायता प्रदान की जाती है, जैसे हाथ पकड़ कर लिखना या बटन खोलना सिखाना।
- शाब्दिक सहायता: यह वह प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक शाब्दिक निर्देश देकर बच्चे को कार्य को संपादित करने में सहायता करता है। उदाहरण के लिए, “हाथ से बटन पकड़ो, दूसरे हाथ से बटन की पट्टी पकड़ो, और छेद में से बटन निकालो।”
- सांकेतिक सहायता: इसमें संकेतों का उपयोग किया जाता है जैसे “धक्का दो” या “यहां घुमा,” जो बच्चे को सही दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
प्राम्पटिंग अक्सर अन्य तकनीकों के साथ उपयोग की जाती है, और जैसे-जैसे बच्चा कार्य में सुधार करता है, प्राम्पट्स को धीरे-धीरे समाप्त किया जाता है।
सामान्यीकरण (Generalization):
सामान्यीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें एक विशेष स्थिति में सीखा गया व्यवहार दूसरी समान स्थिति में लागू किया जाता है।
उदाहरण: यदि बच्चा अपना नाम पढ़ना सीखता है, तो वह किसी भी जगह पर अपने नाम को पढ़ सकेगा, चाहे वह कागज पर हो या बोर्ड पर।
सामान्यीकरण की योजना और क्रियांवयन की तकनीक:
- लक्ष्य व्यवहार का प्रशिक्षण वास्तविक वातावरण में दें ताकि बच्चा वह व्यवहार प्राकृतिक तरीके से सीख सके और जीवन के विभिन्न पहलुओं में उसका प्रयोग कर सके।
इन विधियों का उद्देश्य बच्चों को शिक्षित करते समय उनकी प्राकृतिक क्षमता और रुचियों के अनुसार उनकी मदद करना है, ताकि वे अधिक आत्मनिर्भर और सक्षम बन सकें।
1.4. Selection and use of TLM, and Information and communication technology (ICT) for teaching
शिक्षण सहायक सामग्री का महत्व (Importance of Teaching Aids)
शिक्षण सहायक सामग्री (Teaching Aids) शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह प्रक्रिया को रोचक और प्रभावी बनाती हैं, जिससे छात्रों को किसी विषय को समझने में मदद मिलती है।
एक प्रसिद्ध कहावत है:
“जो मैं सुनता हूँ, वो भूल जाता हूँ; जो मैं देखता हूँ, उसे याद रखता हूँ; और जो मैं करता हूँ, उसे मैं समझता हूँ।”
इस कहावत के आधार पर, शिक्षण सहायक सामग्री का महत्व अत्यधिक है, क्योंकि इससे छात्रों को न केवल समझने में मदद मिलती है, बल्कि उनकी भागीदारी भी बढ़ती है।
शिक्षण सहायक सामग्री (TLM) की परिभाषा: शिक्षण सहायक सामग्री वह अतिरिक्त सहायता है, जिसका उपयोग हम किसी विशेष कार्य या अवधारणा को पढ़ाते समय करते हैं। यह किसी भी रूप में हो सकती है, जैसे कि ब्लैकबोर्ड, मॉडल, चार्ट, चित्र, या अन्य शैक्षिक सामग्री।
टीएलएम का उपयोग छात्रों को विभिन्न शैक्षिक दृष्टिकोणों से सीखने में मदद करता है। इन सामग्रियों की मदद से शिक्षक:
- अपनी बात को सुदृढ़ कर सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि छात्रों ने जो समझा है वह सही है।
- छात्रों को कुछ ऐसा दिखा सकते हैं या अनुभव करवा सकते हैं, जो वास्तविक जीवन में करना संभव नहीं होता।
- सीखने की प्रक्रिया में छात्रों की विभिन्न इंद्रियों को शामिल कर सकते हैं, जैसे दृश्य, श्रवण और अन्य, जो उनकी विभिन्न सीखने की शैलियों को पूरा करते हैं।
टीएलएम के प्रकार (Types of TLM):
- दृश्य सहायताएँ (Visual Aids): ये सामग्री वे होती हैं जो केवल दृष्टि की भावना को आकर्षित करती हैं, जिससे बच्चों को अवधारणाओं को देखने और समझने में आसानी होती है। दृश्य सहायताओं के उदाहरण:
- ब्लैक बोर्ड: यह कक्षा में सभी छात्रों को एक साथ दृश्य रूप में जानकारी देने का एक सामान्य उपकरण है।
- मॉडल: किसी वस्तु या संरचना का छोटा आकार, जिसे बच्चे समझ सकें, जैसे मानव शरीर का मॉडल या पिरामिड का मॉडल।
- चार्ट और चित्र: चार्ट और चित्रों के माध्यम से छात्र एक अवधारणा को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए, जैविक विज्ञान में पौधों का चित्र या गणित के समीकरणों का चार्ट।
- स्लाइड: प्रेजेंटेशन में उपयोग की जाने वाली स्लाइड्स, जो विषय को चित्रों और शब्दों के माध्यम से स्पष्ट करती हैं।
- बुलेटिन बोर्ड: यह दीवार पर लगे बोर्ड होते हैं जिनमें महत्वपूर्ण जानकारी, चित्र या घोषणाएँ होती हैं, जिन्हें छात्र आसानी से देख सकते हैं।
2. श्रव्य दृश्य साधन (Audiovisual Aids):
श्रव्य दृश्य सहायता ऐसी सामग्री होती है जो दृष्टि और ध्वनि दोनों को आकर्षित करती है। यह सामग्री सीखने को अधिक ठोस, यथार्थवादी और गतिशील बनाती है, जिससे छात्रों का ध्यान आकर्षित होता है और वे विषय को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं। उदाहरण स्वरूप:
- ओवरहेड प्रोजेक्टर (Overhead Projector): इस उपकरण का उपयोग स्लाइड्स, चित्र और ग्राफ को कक्षा में प्रक्षिप्त करने के लिए किया जाता है, जिससे छात्रों को देख कर समझने में मदद मिलती है।
- फिल्म प्रोजेक्टर (Film Projector): यह उपकरण फिल्मों या वीडियो के माध्यम से शैक्षिक सामग्री को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल होता है।
- टेलीविजन (Television): टेलीविजन का उपयोग दृश्य और श्रव्य सामग्री को एक साथ दिखाने के लिए किया जाता है, जैसे शैक्षिक वीडियो या दस्तावेजी फिल्में।
- वीडियो कैसेट प्लेयर (Video Cassette Player): इसका उपयोग पुरानी वीडियो कैसेट्स को चलाने के लिए किया जाता है, जो शैक्षिक उद्देश्यों के लिए प्रासंगिक हो सकती हैं।
3. ऑडियो एड्स (Audio Aids):
ऑडियो सहायक वे उपकरण हैं जो केवल ध्वनि प्रदान करते हैं, जिससे छात्रों को श्रवण आधारित जानकारी मिलती है। इनका उद्देश्य शैक्षिक उद्देश्यों के लिए ध्वनि का प्रयोग करना है। उदाहरण के लिए:
- टेप रिकॉर्डर (Tape Recorder): इसका उपयोग ध्वनि रिकॉर्ड करने और छात्रों को सुनाने के लिए किया जाता है।
- ग्रामोफोन (Gramophone): पुराने समय में यह उपकरण संगीत और ध्वनि रिकॉर्डिंग को सुनने के लिए इस्तेमाल होता था।
- रेडियो (Radio): रेडियो के माध्यम से छात्र विभिन्न कार्यक्रमों को सुन सकते हैं, जैसे शिक्षा-संबंधी कार्यक्रम या समाचार।
4. गतिविधि एड्स (Activity Aids):
इनमें विभिन्न वास्तविक जीवन स्थितियों से संबंधित शैक्षिक उपकरण आते हैं, जो छात्रों को व्यावहारिक अनुभव प्रदान करते हैं:
- संग्रहालय (Museum): संग्रहालय में बच्चों को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और प्राकृतिक धरोहरों के बारे में जानकारी दी जाती है।
- बगीचा (Garden): बगीचे में पौधों, फूलों, और जीव-जंतुओं को देख कर छात्र जीवविज्ञान सीख सकते हैं।
- काम की दुकान (Workshop): जहां बच्चों को कारीगरी और शिल्प के बारे में सिखाया जाता है।
- मेला (Fair): मेलों में छात्र विभिन्न प्रकार की वस्तुएं और सांस्कृतिक गतिविधियाँ देख सकते हैं।
- रसोई (Kitchen): रसोई में बच्चों को खाना बनाने की प्रक्रिया और खानपान के बारे में व्यावहारिक शिक्षा दी जाती है।
- एक्वेरियम (Aquarium): जलजीवों के बारे में सीखने के लिए एक्वेरियम का उपयोग किया जाता है।
- प्रदर्शनियाँ (Exhibitions): विभिन्न शैक्षिक और सांस्कृतिक प्रदर्शनी छात्रों के ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होती हैं।
शिक्षण सामग्री और सहायक सामग्री का चयन (Selection of Teaching Aids and Materials):
शिक्षण सामग्री और सहायक सामग्री का चयन करते समय निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जाता है:
- शिक्षार्थी के स्तर के लिए उपयुक्त आयु (Age-appropriate for learners): सामग्री को बच्चों की आयु और समझ के स्तर के अनुसार चुना जाना चाहिए।
- मानसिक मंद बच्चों के लिए सुलभ (Accessible for children with mental disabilities): मानसिक मंद बच्चों को ध्यान में रखते हुए ऐसी सामग्री का चयन करें जो उन्हें समझने में मदद करें।
- स्थानीय संसाधनों से तैयार (Prepared from local resources): जब संभव हो, सामग्री को स्थानीय संसाधनों से तैयार करना चाहिए, ताकि बच्चों को अपनी स्थानीय संस्कृति और पर्यावरण से जुड़ी शिक्षा मिल सके।
- तथ्यों के प्रतिनिधित्व में सटीक (Accurate representation of facts): सामग्री को सटीक और तथ्यपूर्ण होना चाहिए ताकि बच्चों को सही जानकारी मिले।
- बच्चों के लिए आकर्षक, सममित और रंगीन (Appealing, symmetrical, and colorful for children): सामग्री बच्चों को आकर्षित करने वाली और रंगीन होनी चाहिए।
- आसान में तैयार और सरल भाषा (Easy to prepare and simple language): सामग्री को तैयार करना और समझाना आसान होना चाहिए, और भाषा सरल होनी चाहिए।
- कक्षा में हेरफेर में आसान (Easy to handle in class): सामग्री को कक्षा में आसानी से उपयोग में लाया जा सके।
- आकार में उपयुक्त (Appropriate size): सामग्री का आकार इस प्रकार का होना चाहिए कि बच्चों के लिए उसे देखना और समझना आसान हो।
- पाठ्यक्रम से संबंधित (Relevant to the curriculum): सामग्री पाठ्यक्रम से संबंधित होनी चाहिए ताकि वह बच्चों के अध्ययन के उद्देश्य को पूरा कर सके।
- जटिल और कठिन अवधारणाओं को सरल बनाने के लिए (To simplify complex and difficult concepts): जिन अवधारणाओं को समझाना कठिन हो, उनके लिए उपयुक्त शिक्षण सामग्री का उपयोग करना चाहिए।
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का महत्व:
आईसीटी (Information and Communication Technology) का महत्व शिक्षा में तेजी से बढ़ रहा है। यह न केवल विद्यार्थियों को सूचना प्रदान करने का एक प्रभावी तरीका है, बल्कि उनके कौशल, ज्ञान और समझ को भी बढ़ाता है।
यूनेस्को के अनुसार:
आईसीटी एक वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग अनुशासन है, जिसका उद्देश्य सूचना और संचार को प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्रबंधित करना है। यह ज्ञान प्राप्ति, समाजिक विकास, और सांस्कृतिक मामलों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
एनसीएफ 2005 (National Curriculum Framework 2005):
इसके अनुसार, आईसीटी सामाजिक विभाजन को समाप्त करने और दूरस्थ क्षेत्रों में समान अवसर प्रदान करने का एक उपकरण है। यह छात्रों को शिक्षा तक समान पहुँच प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन बन सकता है।
आईसीटी के शैक्षिक अनुप्रयोग (Educational Applications of ICT):
आईसीटी का उपयोग शिक्षा में विभिन्न रूपों में किया जा रहा है, जैसे कि:
- ऑनलाइन शिक्षा: छात्रों को इंटरनेट के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने के अवसर मिलते हैं।
- डिजिटल पाठ्यक्रम: डिजिटल पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को अध्ययन सामग्री प्रदान की जाती है।
- शैक्षिक सॉफ़्टवेयर: विशेष सॉफ़्टवेयर का उपयोग बच्चों को विभिन्न विषयों में मदद करने के लिए किया जाता है।
- वर्चुअल कक्षाएँ: वर्चुअल क्लासरूम के माध्यम से शिक्षकों और छात्रों के बीच संवाद बढ़ाया जाता है।
आईसीटी का उपयोग शिक्षा को सशक्त और संवादात्मक बनाने में मदद करता है, जो छात्रों के सीखने की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी और रोचक बनाता है।
1.5. Evaluation – continuous and comprehensive evaluation, progress monitoring and documentation.
सतत और व्यापक मूल्यांकन (Continuous and Comprehensive Evaluation – CCE)
सीसीई (Continuous and Comprehensive Evaluation) भारत के शिक्षा प्रणाली में 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम द्वारा लागू किया गया एक महत्वपूर्ण सुधार है। इस मूल्यांकन प्रक्रिया का उद्देश्य छात्रों के समग्र विकास का माप करना है, न केवल उनकी शैक्षिक सफलता का, बल्कि उनके भावात्मक और मानसिक विकास का भी। यह एक सतत प्रक्रिया है, जो समय-समय पर विभिन्न परीक्षणों और आकलनों के माध्यम से की जाती है।
सीसीई का उद्देश्य और महत्व:
- सतत मूल्यांकन:
सीसीई का मुख्य उद्देश्य छात्रों के सीखने की प्रक्रिया को निरंतर और व्यवस्थित तरीके से मूल्यांकित करना है। यह छात्रों के विकास की निगरानी के लिए डिज़ाइन किया गया है, ताकि उनकी सीखने की यात्रा में रुकावट न आए और समय-समय पर उनकी प्रगति का आकलन किया जा सके। - विविध मूल्यांकन:
सीसीई छात्रों के विभिन्न पहलुओं जैसे संज्ञानात्मक, भावनात्मक, और मनो-प्रेरक विकास को ध्यान में रखकर मूल्यांकन करता है। इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि एक छात्र सिर्फ अकादमिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि अन्य जीवन कौशल, सामाजिक व्यवहार, और शारीरिक विकास में भी प्रगति कर रहा है। - समग्र विकास:
इस प्रक्रिया का उद्देश्य छात्रों के समग्र विकास को प्रोत्साहित करना है, जिसमें उनके शैक्षिक और सह-शैक्षिक पहलू दोनों को शामिल किया जाता है। इसमें शैक्षिक क्षेत्र के अलावा, पाठ्येतर गतिविधियाँ, जीवन कौशल, और छात्रों का भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य भी महत्वपूर्ण हैं। - रचनात्मक और योगात्मक आकलन:
सीसीई में रचनात्मक और योगात्मक आकलन तकनीकों का उपयोग किया जाता है, जो छात्रों के व्यक्तित्व, क्षमता, और सोचने की क्षमता को निखारने में मदद करता है। यह पारंपरिक परीक्षा आधारित प्रणाली से अलग है, क्योंकि यह छात्र की कठिनाइयों और उनकी ताकत दोनों को समझने के लिए और उनकी सीखने की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाता है। - मूल्यांकन के प्रकार:
इस प्रणाली में शैक्षिक (पढ़ाई, लेखन, मौखिक कौशल) और गैर-शैक्षिक (पाठ्येतर गतिविधियाँ, शारीरिक शिक्षा, जीवन कौशल) दोनों प्रकार के आकलन होते हैं। यह छात्रों की समग्र प्रगति और विकास को मापने के लिए आवश्यक है। - शिक्षार्थियों के डर को कम करना:
सीसीई का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य परीक्षा और मूल्यांकन के बारे में छात्रों के बीच भय और चिंता को कम करना है। यह छात्रों को केवल परीक्षा के परिणामों पर निर्भर होने के बजाय, उनकी समग्र प्रगति और विकास को महत्व देने में मदद करता है। इससे छात्रों में आत्मविश्वास बढ़ता है और वे अपनी कमजोरियों को समझ कर उन्हें सुधारने का प्रयास करते हैं।
सीसीई के लाभ:
- शिक्षार्थियों के भय को कम करना:
सीसीई से छात्रों में परीक्षा के प्रति डर कम होता है क्योंकि यह केवल एक परिणाम नहीं बल्कि उनके समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करता है। यह छात्रों को सीखने के लिए एक सुरक्षित और प्रोत्साहक वातावरण प्रदान करता है। - ड्रॉपआउट दर को कम करना:
जब छात्रों को लगातार और व्यापक तरीके से मूल्यांकित किया जाता है, तो इससे उन्हें सुधारने और अपनी कठिनाइयों को दूर करने का अवसर मिलता है, जिससे ड्रॉपआउट दर में कमी आती है। छात्रों को यह महसूस होता है कि वे मूल्यांकित हो रहे हैं, परंतु सिर्फ एक परीक्षा के परिणाम से नहीं, बल्कि उनकी समग्र प्रगति से। - समय-समय पर फीडबैक:
छात्रों को निरंतर फीडबैक दिया जाता है, जिससे वे अपनी गलतियों को पहचान सकते हैं और सुधारने के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। यह उन्हें अपनी पढ़ाई के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराता है। - शिक्षकों के लिए अवसर:
सीसीई शिक्षकों को अपने छात्रों की प्रगति की निरंतर निगरानी करने का अवसर प्रदान करता है। वे छात्रों के प्रदर्शन को बेहतर समझ सकते हैं और जरूरत पड़ने पर समय रहते सुधारात्मक कदम उठा सकते हैं। - सभी प्रकार की क्षमताओं का सम्मान:
यह प्रणाली छात्रों के शैक्षिक और गैर-शैक्षिक दोनों प्रकार के विकास को महत्व देती है, जिससे हर छात्र की विशिष्ट क्षमताओं और हुनरों को पहचानने और प्रोत्साहित करने का अवसर मिलता है।
सीसीई का कार्यान्वयन और चुनौती:
हालांकि सीसीई कई लाभ प्रदान करता है, लेकिन इसका प्रभावी कार्यान्वयन कुछ चुनौतियों का सामना कर सकता है। विशेष रूप से, कई स्कूलों में इस प्रणाली को लागू करना और शिक्षकों को प्रशिक्षित करना एक कठिन कार्य हो सकता है। इसके अलावा, यह प्रणाली स्कूलों में आवश्यक संसाधनों और अवसंरचना की उपलब्धता पर निर्भर करती है, जैसे कि प्रशिक्षित शिक्षक, समय, और उपयुक्त मूल्यांकन उपकरण।
साथ ही, छात्रों के समग्र विकास का मूल्यांकन करने के लिए शैक्षिक और गैर-शैक्षिक गतिविधियों का सही तरीके से रिकॉर्ड रखना भी एक चुनौती हो सकती है।